कंधे पर मोटा सा पाइप लादे घूमने वाली आदिवासी शैलजा हैं शोलायर गांव की पहली महिला प्लंबर
शैलजा जंगल की बेटी थी. यही उसकी कर्मठता का रहस्य भी था. उसे जंगलों के बीच रास्ता बनाना आता था. पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना आता था. प्रकृति के साथ रहना आता था. मेहनत शैलजा के लिए कोई नई बात नहीं थी.
केरल के त्रिचूर जिले के शोलायर गांव में एक हाथ में पाइप और दूसरे हाथ में बाल्टी भर पाइपिंग कनेक्शन लिए एक औरत गाते-गुनगुनाते जा रही हो तो बहुत मुमकिन है कि वह शैलजा हो. शैलजा, जो गांव के लिए एक अनूठी मिसाल बन चुकी है. वह इस गांव की अकेली प्लंबर है. पहली और इकलौती महिला प्लंबर तो है ही. शैलजा घर-घर नये कनेक्शन देने का काम करती है और पुराने कनेक्शन में आती शिकायतों के लिए सेवा भी देती है. पहले तो उसका काम अपने गांव तक सीमित था पर अब दूर के गांव में भी उसके काम की चर्चा सुन लोग उसे बुलाने लगे हैं.
पर यह शैलजा की कहानी की शुरुआत नहीं है. केरल के मशहूर अदिरपिल्ली फॉल्स के पास बीहड़ जंगलों के बीच कादर नाम की आदिवासी प्रजाति रहती है. चालाकुडी नदी के किनारे बसी यह प्रजाति केरल से लेकर तमिलनाडु तक फैली हुई है. 20-25 साल पहले यह बेहद पिछड़ा इलाका था. कादर प्रजाति घने जंगलों में रहती थी, मुख्य भूभाग से बिलकुल कटी हुई.
विकास के नाम पर जब चालाकुडी नदी पर एक के बाद एक बांध बनने लगे तो जंगल के बीच से वाहन गुजरने लगे. आदिवासियों को विस्थापित किया जाने लगा. जिस जीवन के वे लोग आदी थे, वह जीवन बदलने लगा. वन में सुरक्षित संरक्षित रहते लोगों को आजीविका के नये संसाधन खोजने पड़े. कुछ इसी समय के आसपास शुरू होती है शैलजा की कहानी भी.
13 साल की उमर में ब्याह और नई जिंदगी की शुरुआत
गांव शोलायर. तेरह साल की शैलजा की शादी थी. गांव वालों का मानना था कि शैलजा किस्मत वाली थी, जो उसकी शादी सरकारी नौकरी करने वाले आदमी से हो रही थी. शैलजा का पति के.एस.ई.बी (Kerala State Electricity Board) में ओवरसीयर की नौकरी करता था. नियमित आजीविका किस्मत से ही मुमकिन थी.
शादी के बाद तुरंत शैलजा गर्भवती हो गई. चौदह साल में एक फूल सी बेटी की मां बनी. पति शराबी था. नौकरी के बाद वह पूरा समय शराब के नशे में चूर रहता और घर आकर गाली-गलौज करता. पति की सरकारी नौकरी और नियमित पगार का कोई फ़ायदा नहीं हुआ. सारा पैसा शराब में डूब जाता.
पति सरकारी नौकर और पत्नी दिहाड़ी मजदूर
शैलजा घर चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करने लगी. जब काम नहीं मिलता तो घर-घर जाकर काम करती. शैलजा पैसे कमाने के लिए कुछ भी सीखने और करने को तैयार थी. घरवाले उसके हाथ के बनाये खाने के गुण गाते नहीं थकते थे. उसने हौसला पाकर शादियों और के. एस. ई.बी. के कार्यक्रमों में खाना बनाने का काम हाथ में ले लिया. खाने का स्वाद खुद बोलने लगा और उसे और काम मिलने लगा. जैसे-तैसे शैलजा पाई-पाई जमा करती थी और पति अपनी पगार शराब में फूंकने के बाद उसके पैसों पर भी नजर गड़ाए रखता. ऊपर से उधार लेकर भी पीता जाता. शैलजा अपने कमाये पैसों से उधार चुकता करती जाती.
शादी तोड़ने का मुश्किल फैसला
पहली बेटी के बाद एक के बाद एक शैलजा की तीन और बेटियां हुईं. घर चलाना मुश्किल होता जा रहा था. रोज-रोज के झगड़ों से शैलजा टूटती जा रही थी.
इस बीच बच्चियां बड़ी हो रही थीं. सरकारी नौकरी और अनुसूचित जाति से होने के नाते कुछ लाभ उन्हें सरकार की तरफ से मिल रहे थे. वन संरक्षण कानून के तहत भी कुछ मुआवज़ा मिलने लगा, लेकिन चार बेटियों को बड़ा करने के लिए और घर चलाने के लिए यह काफ़ी नहीं था. ख़ासतौर पर जब पति अब भी शराब की लत में चूर रहता था.
खुद चौथी कक्षा तक पढ़ी शैलजा अपनी बच्चियों को ऊंची शिक्षा देना चाहती थी. उसने पहली कक्षा से ही अपनी बच्ची को 70-80 किलोमीटर दूर एक कॉन्वेंट स्कूल के हॉस्टल में भेज दिया. ज्यों-ज्यों बाक़ी बच्चियां बड़ी होती गईं, पति के साथ जीवन और मुश्किल होता चला गया. शैलजा को चिंता खाये जा रही थी कि बच्चियों को इस माहौल में कैसे पालेगी. आख़िर एक दिन हारकर शैलजा ने पति को छोड़ देने का फ़ैसला लिया.
प्लंबिंग कोर्स में दाखिला
शादी तोड़ने के बारे में शैलजा कहती हैं, “यह मेरे लिए नए जीवन की शुरुआत थी.” शैलजा पहली बार अपने जीवन में राहत महसूस कर रही थी. वह हर तरह का काम करने को तत्पर थी. मेहनती, अपने काम के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध और समर्पित. उसमें हमेशा कुछ नया सीखने की ललक रही और सीखा हुआ बेहतर से बेहतरीन करने की इच्छा भी. यही कारण था कि उसके बनाये खाने के स्वाद की चर्चा हर ओर थी. लोग सिफ़ारिश करते और शैलजा को काम मिलता जाता.
बेटियां बड़ी हो रही थीं. एक-एक कर सारी बेटियों को वह हॉस्टल भेज चुकी थी. बड़ी बेटी कॉलेज में डिग्री कोर्स करने लगी. खर्चे बढ़ रहे थे और दिहाड़ी काम कम होते जा रहे थे. लगभग इस समय गांव में भारत सरकार के स्किल इंडिया प्रोग्राम के तहत प्लंबिंग का सर्टिफ़ाइड कोर्स करने का मौक़ा मिला. 25 औरतों ने फॉर्म भरा. सर्टिफिकेट तो सभी को मिला पर पूरी निष्ठा से काम सीखने वाली दो ही औरतें थीं . शैलजा और उसकी एक और सहेली. शैलजा को यह काम अच्छा लगा.
घर की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए शैलजा के लिए यह एक नई आशा की किरण थी. सबसे पहले उसने अपने घर में ही प्लंबिंग के समय कारीगरों के साथ रहकर काम किया. कोर्स के दौरान जो सीखा था, उसे वास्तव में करके देखा. अपने व्यवहार में उतारा. चीजें कहां से ख़रीदी जाती हैं, काम कैसा किया जाता है, मेहनताना कैसे तय होता है, ये सब सीखा. बस में 60 किलोमीटर सफ़र कर ज़रूरत की सब चीज़ें ख़रीदकर बस में लादकर लाती. लोग अजीब नज़रों से यह नज़ारा देखते पर शैलजा पर तो धुन सवार थी.
मां के घर पहला प्लंबिंग का काम
जब कोर्स और ट्रेनिंग का वक्त खत्म हुआ तो असली काम करने का समय आया. मां के घर कुछ प्लंबिंग का काम होना था. शैलजा ने उस काम का जिम्मा उठाया और पूरे घर की प्लंबिंग कर डाली. काम अच्छे से हो गया. नल में पानी आने लगा. शैलजा का आत्मविश्वास बढ़ा. शोलायर गांव में दूसरा कोई प्लंबर नहीं था. शैलजा को काम मिलने लगा. पहले पहल कुछ लोग उसके औरत होने की वजह से काम देने में हिचकिचाते थे. पर फिर काम देखकर सिफ़ारिश भी करते.
प्लंबिंग का काम जोर पकड़ने लगा
वन संरक्षण नियमों के तहत उन्हें वन में रहने और वन में रहकर जीवनयापन करने की अनुमति थी. पर यह एक भरा पूरा जीवन जीने के लिए पर्याप्त नहीं था. शैलजा प्रकृति से कितनी भी जुड़ी क्यों न हो, वह पिछड़ी हरगिज़ नहीं थी. शुरू में आदिवासी होना बाहर की दुनिया में हीनभावना से भर देता था. बच्चों को बाहर की दुनिया में अक्सर तुच्छ समझा जाता. खुद को साबित करने के लिए उन्हें दुगुनी, तिगुनी मेहनत करनी पड़ती. शैलजा उन्हें लगातार प्रोत्साहित करती. वह अपने बच्चों को खुद से ज़्यादा काबिल बनाना चाहती थी.
उसका प्लंबिंग का काम अब ज़ोर पकड़ रहा था. वह महीने का 5000 रु. तक कमाने लगी थी. उसकी अपनी ज़रूरतें सीमित थी. जंगल वैसे भी बहुत कुछ आप ही दे देता है. उसने बच्चियों को हॉस्टल में भेजकर पढ़ाना जारी रखा. पहली बेटी की डिग्री पूरी हुई तो एक अच्छा लड़का देख उसका विवाह करवा दिया. दूसरी बेटी एक साल का आयुर्वेद का कोर्स करने के बाद फ़ार्मेसी पढ़ रही है. बाक़ी दोनों बेटियां भी होशियार हैं और शैलजा को उम्मीद है कि वह भी कल अपने पैरों पर खड़ी हो सकेंगी.
जंगलों में पली मेहनती बेटी
एक उम्र गुजर जाने के बाद जिस काम को सीखना और करना किसी के लिए चुनौती हो सकता है, शैलजा ने वो काम इतनी आसानी से कैसे अपना लिया. ये समझने के लिए उस जगह को समझना होगा, जहां से शैलजा आती हैं.
जंगल के बीचोंबीच उसका गांव शोलायर, जहां हाथियों के झुण्ड चिंघाड़ते मिल जाते. तेंदुए, हिरण, जंगली बिल्लियां, लंगूर और गिलहरियां. जाने कितने छोटे जंगली जानवर गांव के आसपास ही विचरते. तरह-तरह के ज़हरीले सांप खुले में घूमते. आए दिन तेंदुए बकरी के बच्चों को उठाकर ले जाते. हाथी के मस्त होने पर इंसानों के कुचले जाने की बात भी बीच-बीच में सुनने में आती. घने जंगल, पतझड़ी और सदाबहार वृक्ष, लहराते झरने, उबड़-खाबड़ रास्ते, संकुचित पगडंडियां, बेतरतीबी सी फैली हुई नदी, बिछी हुई घाटी. बांस के जंगल, झींगुरों की आवाज़ और जुगनुओं की जगमग.
यही घर रहा कादर प्रजाति का. शैलजा इसी जंगल की बेटी थी. यहीं उसका मन था. उसकी आत्मा का संगीत भी. उसकी कर्मठता का रहस्य भी. उसे जंगलों के बीच रास्ता बनाना आता था. पहाड़ों पर चढ़ना-उतरना आता था. जंगली जानवरों से बचना आता था. प्रकृति के साथ रहना आता था. मेहनत शैलजा के लिए कोई नई बात नहीं थी.
अरमान अभी और भी हैं
ऐसा नहीं था कि गांव में हर कोई शैलजा के साथ खड़ा रहा हो. शैलजा हंसकर कहती हैं, “कुछ लोग तो हर जगह ऐसे होते ही हैं, जिनसे दूसरों की ख़ुशी और प्रगति देखी नहीं जाती.” उन्होंने उसके औरत होकर ऐसा काम करने पर सवाल उठाये, उसके कौशल पर शक किया, उसे संदेह से देखा. पर फिर भी ऐसे लोग भी ठीकठाक तादाद में रहे, जिन्होंने उस पर विश्वास किया, काम दिया, सिफ़ारिश की और पीठ भी ठोंकी.
शैलजा ख़ुश है. जब वह मुझसे बात करती है तो उसकी आवाज़ मुस्कुराती है. मैं उत्सुकता से पूछती हूँ, “क्या उम्र हुई तुम्हारी शैलजा?”
“37. पता है मैं तो नानी बन गई हूं. मेरी बेटी ने कुछ ही दिन पहले एक प्यारे बेटे को जन्म दिया है.”
“अरे वाह ! शोलायर में?” मैं भी चहक उठती हूं.
शैलजा कहती हैं, “शोलायर के आसपास कोई अच्छा अस्पताल नहीं है. अभी मैं जंगल से 60 किलोमीटर दूर चालाकुडी शहर में अस्पताल के पास किराये के मकान में रह रही हूं.” बेटी के लिए उसे यही ठीक लगा. वह उसे किसी मुसीबत में नहीं डालना चाहती. वह कहती हैं कि शहर में अगर एक मकान हो तो आगे भी बच्चियों के लिए सहूलियत रहेगी.
कुछ सोचकर वह आगे कहती हैं, “चार बेटियों की मां और प्लंबर दोनों साथ साथ होना आसान नहीं है. हर तरह का काम औरत कर तो सकती है पर औरत होना ही इतनी सारी ज़िम्मेदारियों से भरा है कि लाख चाहने पर भी हम वो सबकुछ नहीं कर सकते हैं, जो चाहते हैं.”
शोलायर के पास अच्छे सरकारी स्कूल नहीं हैं. अस्पताल नहीं हैं. मौक़े नहीं हैं. शैलजा कहती हैं कि जीवन में मौक़ा मिलना बड़ी बात है. उसने इसी एक बात का ध्यान रखा कि बच्चों को मौक़ों की कमी नहीं होनी चाहिए.
मैं वाक़ई शैलजा की सोच और साफ़गोई से प्रभावित हूं. मैं पूछती हूं कि क्या शैलजा भी जीवन से कुछ और मौक़े चाहती है. बिना हिचके शैलजा जवाब देती है, “मैं प्लंबिंग के बारे में और सीखना चाहती हूं. अगर संभव हो तो कोई और कोर्स करना चाहूंगी. मैं अपना काम बढ़ाना चाहती हूं. अपने साथ एक असिस्टेंट रखना चाहती हूं. अगर हो सके तो एक छोटी सी टीम बना लूं.”
मैं कल्पना करती हूं यूनिफ़ॉर्म में शैलजा की. वो अपने असिस्टेंट के साथ है. शायद अपना खुद का टेम्पो चला रही है. उसकी संगत में मैं भी सपने देखने लगती हूं. वैसे चालाकुडी से बस में पाइप और प्लंबिंग के कनेक्शन लादकर लाने वाली शैलजा के लिए यह सपना भी मुमकिन है.
मैं उसकी बड़ी बेटी से पूछती हूं, “तुम अपनी मां के बारे में क्या सोचती हो?” अपने नवजात शिशु को गोद में लिए वह कहती है,”मां पर गर्व है. चाहती हूं कि मां का काम खूब आगे बढ़े.”
आसपास तो प्लंबिंग का और काम सीखने का मौका है नहीं. मैं पूछती हूं, “क्या कहीं बाहर जाकर काम सीखोगी?”
शैलजा मुस्कुराकर कहती हैं, “जब पति के साथ थी तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि एक दिन इतना सबकुछ करूंगी. जब अकेली पड़ गई तो एक के बाद एक सब होने लगा. पति साथ होता तो कभी ये काम नहीं करने देता. बेटियां साथ हैं तो सब मुमकिन है.”
“क्या कहना चाहोगी देश की तमाम बच्चियों से शैलजा?” मैं पूछती हूं.
“यही कि लड़की होने की वजह से किसी काम को करने से कभी पीछे नहीं हटना. अपना रास्ता खुद बनाना. तुम आगे बढ़ोगी तो मुश्किल खुद आसान हो जाएगी.”
मैं शैलजा से उसके नाती को दिखाने का आग्रह करती हूं और वो पूरा वीडियो बनाकर मुझे भेज देती है. नन्हा सा बच्चा पालने में और शैलजा लोरी गाती हुई. उसकी आवाज़ में जंगल है, पेड़ों की छाँव है, झरनों का कल-कल, हवा की रवानी और पंछियों की मधुरता है. एक मां का स्नेह और आत्मविश्वास है. एक स्त्री का होना है. हरा और सुंदर.
Edited by Manisha Pandey