स्त्रियों की ड्राइविंग का मजाक उड़ाने वालों को नहीं पता होगी ये बात!
स्टीरियोटाइप्स बनाना अच्छी बात नहीं
बात-बात पर लड़कियों, स्त्रियों की ड्राइविंग का मजाक उड़ाने वाले बाहर तो कम, घर ही में मिल जाएंगे। और तो और, वे भी मजाक बनाने लगते हैं, जिन्हें खुद ठीक से वाहन चलाने नहीं आता है। उड़ाते रहिए मजाक, पुलिस के आंकड़ों ने तो साबित कर दिया है कि फिमेल ज्यादा सुरक्षित ड्राइविंग करती हैं। वाहनों में आ रहीं नई-नई तकनीकें भी सड़कों पर पुरुष वर्चस्व धीरे-धीरे दरका रही हैं।
दिल्ली में रजिस्टर्ड कुल वाहनों में से 11 प्रतिशत ही महिलाओं के नाम पर हैं। महिलाएं सुरक्षित कारणों से भी सड़कों पर वाहन लेकर निकलने में सौ बार सोचती हैं। एक लड़की ढेर सारी चुनौतियों का सामना करती है। घर में, कॉलेज में, ऑफिस में, सड़क पर। ड्राइविंग करते समय वह ढेर सारी चुनौतियों का सामना करती रहती है।
पुरुष-वर्चस्ववादी भारतीय समाज में एक और मिथ्या धारणा निर्मूल साबित हुई है कि औरतें खराब ड्राइविंग करती हैं। बात-बात पर लड़कियों, स्त्रियों की ड्राइविंग का मजाक उड़ाने वाले बाहर तो कम, घर ही में मिल जाएंगे। और तो और, वे भी मजाक बनाने लगते हैं, जिन्हें खुद ठीक से वाहन चलाने नहीं आता है। उड़ाते रहिए मजाक, दिल्ली पुलिस के आंकड़ों ने तो साबित कर दिया है कि महिलाएं ही सबसे सुरक्षित ड्राइविंग करती हैं। इस पर महकमे की ओर से हाल ही में सविस्तार आकड़ा भी जारी हो चुका है। पुलिस ने सार्वजनिक रूप से साझा की गई इस ताजा जानकारी में ये भी खुलासा किया है कि पिछले साल 2017 में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन के मामले में कुल छब्बीस लाख चालान दिल्ली पुलिस ने काटे थे, जिनमें सिर्फ छह सौ महिलाएं दर्ज हुईं।
यहां तक कि ड्रंकेन ड्राइविंग, यानी नशे की हालत में वाहन चलाने वालों में भी वह मात्र दो प्रतिशत रहीं। बाकी प्रति सैकड़ा 98 पुरुष चालक नशेड़ी पाए गए। इतना ही नहीं, एक भी महिला का नशे के मामले में चालान नहीं कटा यानी उनका प्रतिशत लगभग शून्य ही माना जाना चाहिए। गौरतलब है कि नशे की हालत में ड्राइविंग सड़क दुर्घटनाओं की एक सबसे बड़ी वजह मानी गई है। तो आए दिन की दुर्घटनाओं की वजह कौन हैं, तो पता चला कि पुरुष। दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की इस रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि ओवर स्पीडिंग के दर्ज कुल 1,39,471 मामलों में भी सिर्फ 514 महिलाएं तेज वाहन चलाते पकड़ी गईं। इसी तरह ट्रैफिक सिग्नल जंप के कुल 1,67,867 मामलों में सिर्फ 44 महिलाओं पर चालान दर्ज हुए।
सिग्नल जंप का मतलब होता है, रेड लाइट के नियमों का उल्लंघन। बहुत कम महिलाएं या लड़कियां नियमों का उल्लंघन करते हुए दिल्ली पुलिस ने चिन्हित किए। चलिए, इन तुलनात्मक ट्रैफिक आकड़ों की एक वजह ये मान लेते हैं कि दिल्ली में ज्यादातर पुरुष ड्राइविंग करते हैं तो इसमें दोष किसका है? दिल्ली में जारी हुए कुल ड्राइविंग लाइसेंसों के हिसाब-किताब से पता चला है कि 71 पुरुष लाइसेंस धारकों की तुलना में सिर्फ एक महिला लाइसेंस धारक है हमारे देश की राजधानी में। इसकी एक अलग कहानी है, जिसकी वजह पुरुष वर्चस्व माना गया है। लड़कियां भले जीवन के बाकी कार्यक्षेत्रों में बढ़त लेती जा रही हों, दिल्ली में उनके नए ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने का आंकड़ा मात्र लगभग पांच प्रतिशत है। यानी 95 प्रतिशत नए ड्राइविंग लाइसेंस लड़कों के बनवाए जा रहे हैं। हर परिवार में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने में लड़कों को ही प्राथमिकता दी जा रही है। मजाक तो ये है कि बुजुर्ग पुरुष तो अपने लाइसेंस का रिन्यूवल करा सकते हैं लेकिन लड़कियों के नए ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने में पुरुष मानसिकता आड़े आ जाती है।
दिल्ली में रजिस्टर्ड कुल वाहनों में से 11 प्रतिशत ही महिलाओं के नाम पर हैं। महिलाएं सुरक्षित कारणों से भी सड़कों पर वाहन लेकर निकलने में सौ बार सोचती हैं। एक लड़की ढेर सारी चुनौतियों का सामना करती है। घर में, कॉलेज में, ऑफिस में, सड़क पर। ड्राइविंग करते समय वह ढेर सारी चुनौतियों का सामना करती रहती है। उसे कदम-कदम पर शोहदों की छेड़खानियां भी झेलनी पड़ती है। लड़कियों को ड्राइविंग करते देख ये शोहदे कुछ ज्यादा ही मूड में आ जाते हैं। फिकरे कसते हैं। ऐसे में प्रायः वाहन दुर्घटनाओं का भी अंदेशा रहता है। वाहनों में पावर स्टीयरिंग तकनीक आ जाने के बाद तो पुरुषों के ही बेहतर चालक होने की बातें और ज्यादा मिथ्या साबित हुई हैं।
गियरलेस टूह्वीलर की वजह से भी सड़कों पर महिलाओं की संख्या में इजाफा हुआ है। इलेक्ट्रिक स्कूटरों के लिए लाइसेंस गैरजरूरी होना और ऑटोमैटिक गियर की कारें बाजार में आ जाना भी नए जमाने की एक सुखद पहल है। बहरहाल, दिल्ली पुलिस के इन सुखद आकड़ों के अलावा कुछ साल पहले एक और रिसर्च में प्रमाणित हो चुका है कि सड़क दुर्घटनाओं की वजह पुरुष हैं। वे जानबूझकर सड़कों पर जोखिम मोल लेते हैं। ब्रिटेन में लंदन के हाइड पार्क कॉर्नर पर रिसर्चर्स ने देखा कि पुरुष चालक दो वाहनों के बीच की दूरी मेंटेन करने में रिस्क लेने के साथ ही अक्सर फोन पर बतियाते भी रहते हैं, जबकि कम ही महिलाएं ऐसा करती मिलीं। यह भी एक विडंबना ही रही है कि खुद समझदार महिलाएं भी महिलाओं को बेहतर ड्राइवर नहीं मानती हैं। एक अन्य शोध में नार्वे के वैज्ञानिकों का निष्कर्ष रहा है कि ड्राइविंग करते समय ज्यादातर पुरुषों का दिल-दिमाग एकाग्र नहीं रहता है। उनकी तुलना में बहुत ही कम महिलाओं का ड्राइविंग कंसन्ट्रेशन बिगड़ता है।
दरअसल, महिलाओं की ड्राइविंग का अनुपात मामूली होने की वजह उनकी अकुशलता, अयोग्यता नहीं बल्कि पुरुष मानसिकता है। अब की लड़कियां तो खतरनाक राइडिंग से भी नहीं हिचकती हैं। लड़कियां जब भारी बाइक, स्कूटी सुरक्षित तरीके से फर्राटे से दौड़ाती हैं, उन पर अनायास लोगों की नजरें टिक जाती हैं। फिर भी जोक किया जाता है कि महिलाएं अच्छी ड्राइवर नहीं होती हैं। दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के मुताबिक ट्रैफिक नियमों के उल्लघंन में सामने आए इन मामलों में महिला और पुरूष चालकों के बीच अंतर की मुख्य वजह उनके अनुपात में बड़ा अंतर होना है। ड्राइविंग केवल गाड़ी चलाना नहीं बल्कि अपने रास्ते खुद तय करने का परिचायक है। गाड़ी की स्टीयरिंग आपके हाथ में आते ही मन पहले थोड़े डर और फिर विजयी होने के गर्व से भर जाता है।
आपके अंदर आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता का संचार होता है। एक समय था जब लड़कियां अपने भाई, पापा या किसी दोस्त की गाड़ी में बैठकर ड्राइव करने की केवल कल्पना ही कर सकती थीं। स्टीयरिंग अपने हाथ में पकड़ ड्राइविंग करना उनके लिए एक सपना लगता था। लंबे इंतजार के बाद बाजार में ‘वाय शुड ब्याज हैव ऑल द फन’, टैग लाइन के साथ स्कूटी के आते ही सड़कों पर लैंगिक समीकरण बदल गया है। पहले से कहीं ज्यादा लड़कियां स्कूटी पर तूफानी रफ्तार से दौड़ने लगीं हैं। जो लड़की अब तक बाइक पर पीछे बैठकर किसी और के सहारे आती-जाती थी, अब खुद हैंडल संभालने लगी है। जहां चाहे गाड़ी को घूमाकर अपनी मर्जी के रास्ते बनाने लगी है। यह उनके आत्मविश्वास में इजाफे का ही नहीं, लड़कियों के आजाद परिंदों जैसी स्वतंत्रता का भी परिचायक है। वर्तमान समय में भले ही महिला ड्राइवर्स की संख्या बढ़ी हो, सड़कों पर अब भी उनका प्रतिशत बहुत कम है। महिलाओं की ये आजादी पुरुष वर्ग अपने मानसिक स्तर पर आसानी से पचा नहीं पा रहा है। उसका जातीय दंभ उसके सहज होने में आड़े आता है। फिर भी, चलो जितना भी सड़कों पर पुरुष वर्चस्व धीरे-धीरे ही सही, दरक तो रहा है।
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