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अब्बा (पार्ट-2)

मम्मी की हमेशा ये शिकायत रहती थी, कि वे (कैफ़ी साहब) मुशायरे से आकर ये नहीं बताते कि मुशायरा कैसा रहा, बहुत कुरेदिये तो इतना जवाब ज़रूर मिल जाता था- 'ठीक था,' इससे ज्यादा कुछ नहीं।

अब्बा (पार्ट-2)

Monday April 03, 2017 , 6 min Read

"साहिर साहब बहुत लोकप्रिय थे, सरदार ज़ाफ़री का बड़ा सम्मान था, लेकिन कैफ़ी आज़मी की एक अलग बात थी। वे मुशायरे के बिल्कुल आखिर में पढ़ने वाले चंद शायरों में से एक थे। उनकी गूंजती हुई गहरी आवाज़ में एक अजीब शक्ति, एक अजीब जोश, एक अजीब आकर्षण था।"

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अब्बा कैफ़ी आज़मी और मम्मी शौकत आज़मी के साथ प्यारी बेटी 'शबाना'a12bc34de56fgmedium"/>

मेरी मम्मी अब्बा की ज़िंदगी में पूरी तरह हिस्सा लेती रहीं। शादी के पहले उन्हें अब्बा पसंद तो इसलिए आये थे कि वे एक शायर थे मगर शादी के बाद उन्होंने बहुत जल्दी ये जान लिया कि कैफ़ी साहब जैसे शायरों को बीवी के अलावा भी अनगिनत लोग चाहते हैं। ऐसे शायरों पर उसके घरवालों के आलावा दूसरों का भी हक़ होता है (और हक़ जताने वालों में अच्छी ख़ासी तादाद ख़वातीन की होती है)।

याद आता है, मैं शायद दस या ग्यारह बरस की होऊंगी जब हमें एक बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट के घर में एक शाम दावत दी गई थी। उन साहब की खूबसूरत बीवी, जिनका उस ज़माने की सोसायटी में बड़ा नाम था, इतरा के कहने लगीं- 'कैफ़ी साहब, मेरी फरमाइश है वही नज़्म 'दो निगाहों का... समथिंग समथिंग।' फिर दूसरों की तरफ देखकर फरमाने लगीं- 'पता है दोस्तों, ये नज़्म कैफी साहब ने मेरी तारीफ में लिखी है'- और अब्बा बगैर पलक झपकाए बड़े आराम से वो नज़्म सुनाने लगे, जो मुझे अच्छी तरह पता था कि उन्होंने मम्मी के लिए लिखी थी और मैं अपनी माँ की तरफदारी में आगबबूला होकर चिल्लाने लगी- 'ये झूठ है। ये नज़्म तो अब्बा ने मम्मी के लिए लिखी है, उस औरत के लिए थोड़ी।' महफिल में एक पल तो सन्नाटा-सा छा गया। लोग जैसे बगलें झांकने लगे। फिर मम्मी ने मुझे डांट कर चुप करया।

सोचती हूं, ये डांट दिखावे की ही रही होगी, दिल में तो उनके लड्डू फूट रहे होंगे। बाद में मम्मी ने मुझे समझाया भी कि शायरों का अपने चाहने वालों से एक रिश्ता होता हैअगर वो बेचारी समझ रही थी कि वो नज़्म उसके लिए लिखी गई है, तो समझने दो, कोई आसमान थोड़ी टूट पड़ेगा। खै़र, अब उस बात को बहुत बरस हो गये लेकिन हाँ, कैफ़ी साहब ये नज़्म उन मेम साहब को दोबारा नहीं सुना सके और वो मैडम आज तक मुझसे ख़फा हैं।

अब्बा की महिला दोस्तों में जो मुझे सबसे अच्छी लगती थीं, वो थीं बेगम अख़्तर। वो कभी-कभी हमारे घर पर ठहरती थीं। वैसे तो जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय 'फ़िराक़' और फैज़ अहमद 'फैज़' भी हमारे यहां मेहमान रहे हैं, जबकि हमारे घर में न तो कोई अलग कमरा था मेहमानों के लिए न ही अटैच्ड बाथरूम। मगर ऐसे फ़नकारों को अपने आराम-वाराम की परवाह कहां होती है। उनके लिए दोस्ती और मोहब्बत पांच-सितारा होटलों से बड़ी चीजें होती हैं। उन लोगों के आने पर जो महफ़िलें सजा करती थीं, उनका अपना एक जादू होता था और उनकी बातें मनमोहिनी हालांकि मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आथी थीं, मगर वो शब्द कानों में संगीत जैसे लगते थे। मैं हैरान उन्हें देखती थी, सुनती थी और वो नदियों की तरह बहती हुई बातें गिलासों की झंकार, वो सिगरेट के धुएं से धुंधलाता कमरा...।

अब्बा ने मुझसे कभी नहीं कहा, 'जाओ, बहुत देर हो गई है, सो जाओ' या 'बड़ों की बातों में क्यों बैठी हो।' हां, मुझे इतना वादा ज़रूर करना पड़ता था कि अगले दिन सुबह-सुबह उठकर स्कूल जाने की जिम्मेदारी मेरी है। मुझे हमेशा ये यकीन दिलाया जाता रहा है कि मैं समझदार हूं और अपने फ़ैसले खुद कर सकती हूं।

फिर मैं मुशायरे में भी जाने लगी। साहिर साहब बहुत लोकप्रिय थे, सरदार ज़ाफरी का बड़ा सम्मान था, मगर कैफ़ी आज़मी की एक अलग बात थी। वो मुशायरे के बिल्कुल आखिर में पढ़ने वाले चन्द शायरों में से एक थे। उनकी गूंजती हुई गहरी आवाज़ में एक अजीब शक्ति, एक अजीब जोश, एक अजीब आकर्षण था। मेरा छोटा भाई बाबा और मैं दोनों आमतौर से मुशायरे स्टेज पर गावतकियों के पीछे सो चुके होते थे और फिर तालियों की गूंज में आंख खुलती जब कैफ़ी साहब का नाम पुकारा जा रहा होता था। अब्बा के चेहरे पर लापरवाही-सी रहती। मैंने उन्हें कभी न उन तालियों पर हैरान होते देखा, न ही बहुत खुश होते। मम्मी की तो ये हमेशा से शिकायत रही कि मुशायरे से आकर ये नहीं बताते कि मुशायरा कैसा रहा, बहुत कुरेदिए तो इतना जवाब ज़रूर मिल जाता था- 'ठीक था,' इससे ज्यादा कुछ नहीं।

मैं शायद सत्तरह-अट्ठारह साल की थी। वो एक मुशायरे से वापस आए और मैं बस पीछे ही पड़ गई ये पूछने के लिए कि उन्होंने कौन-सी नज़्म सुनाई और लोगों को कैसी लगी। मम्मी ने धीरे से कहा कि - 'कोई फायदा नहीं पूछने का'- मगर मुझे भी ज़िद हो गई थी कि जवाब लेकर रहूंगी। अब्बा ने मुझे अने पास बिठाया और कहा, 'छिछोरे लोग अपनी तारीफ करते हैं, जिस दिन मुशायरे में बुरा पढ़ूंगा, उस दिन आकर बताऊंगा।' उन्होंने कभी अपने काम या कामयाबी की नुमाइश नहीं की। गाना रिकॉर्ड होता तो कभी उसका कैसेट घर नहीं लाते थे। आज के गीतकार तो अपने गीत ज़बरदस्ती सुनाते भी हैं और ज़बरदस्ती दाद वसूल करते हैं।

अब्बा कभी क़लम कागज़ पर नहीं रखते जब तक कि डेडलाइन सर पर न आ जाए और फिर फिज़ूल कामों में अपने को उलझा लेते जैसे कि अपनी मेज़ की सभी दराज़े साफ़ करना, कई ख़त जो यूं ही पड़े थे उनका जवाब देना- मतलब ये कि जो लिखना है उसके अलावा और सबकुछ। मगर शायद ये सब करते हुए कहीं उनकी सोच कि जो लिखना है उसे भी चुपके-चुपके लफ़्जों के सांचे में ढालती रहती। जब लिखना शुरू किया तो भले घर में रिडियो बज रहा हो, बच्चे शोर मचा रहे हों, घर के लोग ताश खेल रहे हों, हंगामा हो रहा हो- कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि घर पर खामोशी का हुक्म हो गया कि अब्बा काम कर रहे हैं। लिखते वक़्त उनकी स्टडी का दरवाज़ा भी खुला रहता, यानी कि उस पल में भी दुनिया से रिश्ता कम नहीं होने देते।

एक बार मैंने उनकी मेज़ कमरे के दूसरे कोने में रखनी चाही कि यहां उन्हें बाहर के शोर, दूसरों की आवाजों से कुछ तो छुटकारा मिलेगा। मम्मी ने कहा, 'बेकार है, कैफ़ी अपनी मेज़ फिर यहीं दरवाज़े के पास ले आयेंगे'- और ऐसा ही हुआ।


-शबाना आज़मी

-प्रस्तुत लेख साहित्यिक पत्रिका उद्भावना मार्च 2003 अंक से लिया गया है। इसका पहला पार्ट आप पहले पढ़ चुके हैं, आगे का लेख पढ़ने के लिए'अगली किश्त' अब्बा (पार्ट-3) का इंतज़ार करें...

अब्बा(पार्ट-1) पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...