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धान की फसल बोने वाला गरीब बच्चा बड़ा होकर बन गया दिल का डॉक्टर

वैसे तो कामयाबी की हर कहानी अनोखी होती है, लेकिन दिल के डॉक्टर अक्षय कुमार बिसोई की कामयाबी की कहानी कई मायनों में अलग है। ये यकीन करना मुश्किल है, लेकिन बात सच है कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में खराब हुए दिलों का ऑपरेशन कर उन्हें ठीक कर रहे बिसोई बचपन में गाँव के खेतों में धान की फसल बोने के साथ-साथ तालाब, नहर और नदी में मछलियां पकड़ा करते थे।

धान की फसल बोने वाला गरीब बच्चा बड़ा होकर बन गया दिल का डॉक्टर

Friday May 12, 2017 , 25 min Read

डॉक्टर अक्षय कुमार बिसोई की कहानी में ऐसी कई सारी बातें और घटनाएं हैं, जो इंसान को कामयाब होने का रास्ता दिखाती हैं। उनका जीवन प्रेरणा देता है, अच्छा काम करने के लिए, खुद की ताकत को समझने और उसका सदुपयोग करने के लिए। पेश हैं डॉ. अक्षय कुमार बिसोई के जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं, जिन्होंने उन्हें एक प्रभावशाली शख्सियत बनाने के साथ उनके व्यक्तित्व को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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कई सारे नवजात शिशुओं के खराब दिल का ऑपरेशन कर उन्हें दुनिया में जीने का मौका देने वाले डॉक्टर अक्षय कुमार बिसोई बचपन में इतने बीमार पड़े, कि उनकी ज़िंदगी घर और अस्पताल के बीच में ही सिमट गयी थी। डॉक्टर जब अक्षय का इलाज नहीं कर पाये, तो माँ ने अपने इष्ट-देव का सहारा लिया और अपनी संतान को शिव-पार्वती के मंदिर में दान दे दिया। दान देते समय माँ को इस बात बात का ज़रा-सा भी आभास नहीं था, कि उनका बेटा बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा और बच्चों के नाजुक दिलों का ऑपरेशन कर उनकी जान बचायेगा। 

अक्षय का जन्म साल 1963 में हुआ था। उन दिनों गाँव शहरों की चकाचौंध और तेज़ रफ़्तार वाली ज़िंदगी से काफी दूर थे। गाँव में न बिजली थी और न ही टीवी। एक मायने में शहरी-जीवन का साया भी कई गाँवों पर नहीं पड़ा था। और तो और, ओड़िसा की गिनती उन दिनों देश के सबसे पिछड़े राज्यों में हुआ करती थी। गावों में न सड़कें थीं, न बिजली थी, न अस्पताल थे। राज्य में कई जगह गरीबी का बोलबाला था और भूखमरी की घटनाएं आम थीं। कई लोग दो जून की रोटी के लिए भी तरसते थे। डॉ. अक्षय के गांव का भी यही हाल था, लेकिन गरीबी भी अक्षय को एक सुंदर और मस्तीभरा बचपन जीने से नहीं रोक पाई। तरह-तरह की कठिनाईयों के बावजूद अक्षय अपने भाइयों और गाँव के दूसरों बच्चों के साथ खूब खेला-कूदा करते थे।

अक्षय के पिता महेंद्र बिसोई किसान थे। वैसे तो अक्षय का परिवार क्षत्रिय है और उनके पूर्वज किसी समय सेनानी हुआ करते थे, लेकिन बीच में राजा-रजवाड़ों की परंपरा ख़त्म होने के बाद अक्षय के पूर्वज अपनी गुज़र बसर करने के लिए किसानी करने लगे थे। अक्षय की माँ वासंती गृहिणी थीं। अक्षय के पिता बड़े किसान या ज़मींदार नहीं थे। वे एक छोटे किसान थे। जितनी ज़मीन थी उसी पर खेती-बाड़ी कर घर-परिवार चलाया करते थे। बड़ी मुश्किल से घर-परिवार की गुज़र-बसर होती थी। खेतों में मेहनत करने पर ही घर-परिवार की मूलभूत ज़रूरतें पूरी हो पाती थीं। तकलीफों के बावजूद माँ की यही कोशिश होती कि परिवारवालों, ख़ासतौर पर बच्चों, को कोई तकलीफ न हो। संकट और दुःख की घड़ी में जब हर कोई हिम्मत हार जाता तब भी माँ का साहस नहीं डगमगाता था। माँ की हिम्मत और मेहनत ने अक्षय के मन-मस्तिष्क पर बहुत ही गहरी और कभी न मिटने वाली छाप छोड़ी है। अक्षय बताते हैं, 'माँ हमसे कहती थीं कि जिंदा रहना है तो खुद ज़िंदगी का रास्ता ढूंढना होगा। किसी की मदद के इंतज़ार में मौत भी हो सकती हैं।' बचपन में गरीबी की मार थी, भूखे पेट की आग थी, मौसम का कहर और इस कहर में जान जाने का खतरा था, लेकिन माँ की ममता, उनके स्नेह और प्यार, उनके साहस और साथ ने अक्षय ही नहीं बल्कि सभी परिवारवालों को ज़िंदगी की हर मुश्किल का सामना करने को प्रेरित और प्रोत्साहित किया।

अक्षय के जीवन में कई बार ऐसा समय भी आया जब उनके मन में ये सवाल उठा कि वो जो कर रहे हैं वो सही है या नहीं। इसी सवाल के जवाब की तलाश में उन्होंने अपना काम बीच में ही रोक दिया और अपने लिए सही काम की तलाश में निकल पड़े। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में रोकी, आईएएस बनने की तैयारी शुरू की, लेकिन मन फिर कुछ और करने के लिए कहने लगा। डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की तब इस सवाल ने परेशान किया कि फिजिशियन बनाना है या सर्जन। प्रोफेसर अनादि कृष्ण पात्रा के कहने पर प्रोफेसर वेणुगोपाल से मिले अक्षय को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में आकर अपने ज़िंदगी के सही मकसद के बारे में पता चला।

गाँव सुंदर होता है। वो गाँव और भी ज्यादा सुंदर होता है जो प्रकृति की गोद में होता है। जब गाँव के पास से होकर कोई नदी गुज़रती हो और आसपास की सारी ज़मीन उपजाऊ हो तब उस गाँव की सुंदरता को चार चाँद लग जाते हैं। ऐसे ही बेहद सुंदर गाँव में अक्षय का जन्म हुआ। अक्षय के गाँव का नाम है मालियतन और ये ओड़िशा राज्य के कटक जिले में पड़ता है। मालियतन गाँव से सिर्फ दो किलोमीटर दूर ही ‘महानदी’ बहती है। गाँव के बिलकुल पास से ही एक नहर भी होकर गुज़रती है। गाँव में एक तालाब भी है । गाँव से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर बंगाल की खाड़ी भी है, यानी समुंदर भी गाँव से ज्यादा दूर नहीं है। मालियतन गाँव के आसपास खेत ही खेत हैं। गाँव में कई खलियान भी हैं। कई सारे पेड़ हैं, अलग-अलग फलों के पेड़। नारियल के भी पेड़ हैं। बड़े-बड़े छायादार पेड़ भी हैं। गाँव के पास ही जंगल भी है और पहाड़ियां भी। प्रकृति की गोद में बसे इस गाँव में कई परिवार रहते हैं। गाँव में किसान हैं, कुम्हार हैं, मछुवारे हैं, नाई हैं, और भी बहुत से लोग हैं। ज्यादातर लोगों की रोजी-रोटी खेती-बाड़ी से ही चलती है।

अक्षय ने न सिर्फ इंसानी दिल से मोहब्बत की बल्कि शल्य-चिकित्सा को अपना सबसे बड़ा कर्म और धर्म बना लिया। उन्होंने अपने आप को न सिर्फ दिल, छाती और रक्त-सम्वाहिनियों के ऑपरेशन तक सीमित नहीं रखा बल्कि शोध और प्रयोग से जुड़े कामों में भी अपना जीजान लगाया और अपनी कामयाबियों से चिकित्सा-क्षेत्र को समृद्ध व् विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

खेल-कूद और मौज-मस्ती के बावजूद अक्षय ने बचपन में पढ़ाई-लिखाई को हमेशा सबसे ज्यादा अहमियत दी। छोटी-सी उम्र में ही वे ये बात अच्छी तरह से समझ गए थे कि अगर उन्हें गरीबी से नाता तोड़ना है तो उन्हें खूब पढ़ना है। वे जान गए थे कि अच्छा पढ़-लिखकर परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाने से ही उन्हें तगड़ी तनख्वाह वाली नौकरी मिलेगी और नौकरी ही उनकी गरीबी को भी दूर करेगी। अक्षय बचपन से ही तेज़ थे। पहली कक्षा से ही अक्षय हर परीक्षा में अच्छे नंबर लाये। ओड़िया मीडियम से स्कूली शिक्षा लेने वाले अक्षय ने दसवीं की परीक्षा भी शानदार नंबरों से पास की। दसवीं में मिले शानदार नंबरों के आधार पर अक्षय का दाखिला ओड़िसा यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी के कॉलेज ऑफ़ बेसिक साइंस एंड ह्यूमैनिटीज़ में हो गया। अक्षय के रिश्तेदारों में कई सारे लोग इंजीनियर थे, माता-पिता की भी यही ख्वाइश थी कि अक्षय भी इंजीनियर ही बनें। लेकिन, अक्षय का मन इंजीनियरिंग की पढ़ाई में नहीं लगा। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में ही रोककर अक्षय मेडिकल कॉलेज में दाखिले की योग्यता हासिल करने की कोशिश में जुट गए। श्री रामचंद्र भंज मेडिकल कॉलेज से MBBS की डिग्री लेने के बाद अक्षय ने सर्जरी में एमएस की डिग्री ली। एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद कुछ दिनों तक उनके मन पर सिविल सर्विसेज एग्जाम में पास होकर IAS अॉफिसर बनाने का जुनून भी सवार रहा, लेकिन काफी माथापच्ची के बाद उन्होंने प्रशासनिक अधिकारी न बनकर डॉक्टर बनने का ही फैसला लिया।

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अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में पिछले 20 सालों से काम करते हुए अक्षय ने 28,000 से ज्यादा ऑपरेशन किये हैं। इन ऑपरेशनों में दिल, छाती/वक्ष और नाड़ी/रक्त कोष्ठक से जुड़े ऑपरेशन शामिल हैं।

अक्षय ने AIIMS में प्रोफेसर वेणुगोपाल और दूसरे विद्वानों से दिल के ऑपरेशन के तौर-तरीके सीखे और दिल का ऑपरेशन करने वाले सर्जन बन गए। 31 अगस्त, 1994 को अक्षय की एम्स में ट्रेनिंग ख़त्म हुई थी और अपने गुरु प्रोफेसर वेणुगोपाल के कहने पर अगले ही दिन यानी 1 सितम्बर, 1994 को वे एम्स में फैकल्टी बन गए। तब से लेकर आजतक वे एम्स में ही अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।

डॉ. अक्षय ने अपने डॉक्टरी जीवन में नवजात शिशु से लेकर 100 साल के बुज़ुर्ग का भी ऑपरेशन किया है। इतना ही नहीं वे 900 ग्राम के वजन वाले शिशु से लेकर 167 किलो वाले एक प्रौड़ इंसान का भी ऑपरेशन कर चुके हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि अक्षय ने जटिल से जटिलतम मामलों को अपने अनुभव और काबिलियत के आधार पर ऑपरेशन यानी शल्य-चिकित्सा के ज़रिये आसानी से सुलझाया है। इस बात में दो राय नहीं कि एम्स जैसे भारत के सबसे बड़े और व्यस्त चिकित्सा-संस्थान में कार्यरत होने की वजह से उनके सामने ऐसे मामले ही आते हैं जिनका निदान भारत में कहीं और संभव नहीं होता।

डॉ. अक्षय ने तीन ऐसे भी ऑपरेशन किये हैं जहाँ शिशुओं का दिल उनके शरीर से बाहर था। माँ के गर्भ में शिशु के विकास-क्रम में कुछ गड़बड़ी आ जाने की वजह से इन शिशुओं में उनका दिल शरीर में सही जगह पर न जाकर शरीर के बाहर आ गया था। ऐसे मामलों में शिशु का ऑपरेशन जल्द से जल्द यानी फौरी स्तर पर करना ज़रूरी होता है वर्ना शिशु की जान जा सकती है। बच्चों के शरीर के बाहर रहने वाले दिल को वापस उसके सही जगह पर रखने का ऑपरेशन आमतौर पर भारत में कहीं भी नहीं किया जाता है। ये ऑपरेशन काफी जटिल होता है और इसे करने के लिए विशेष प्रशिक्षण और अनुभव की आवश्यकता होती है। इस तरह के जटिल और जोखिम भरे ऑपरेशन करने के लिए विशेष प्रशिक्षण और अनुभव के साथ-साथ साहस और विश्वास से भरा एक दिल का भी डॉक्टर के पास होना ज़रूरी है और ऐसा ही मज़बूत, शक्तिशाली, अनुभवी दिल अक्षय के पास है। दिल के डॉक्टरों में अक्षय की ख़ास पहचान की एक वजह दिल की बाईपास सर्जरी भी है। बाईपास सर्जरी में महारत हासिल कर चुके अक्षय ने हजारों मरीजों का इलाज इस शल्य-चिकित्सा-पद्धति से किया है।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान परिसर में उनके निवास पर हुई एक बेहद ख़ास मुलाकात के दौरान अक्षय ने कहा, 'जिस इंसान की तबीयत ठीक नहीं होती वही इंसान अस्पताल आता है। स्वास्थ इंसान अस्पताल नहीं आते। और मेरे पास जितने मामले ऑपरेशन के लिए आते हैं उनमें से ज्यादातर मामले ऐसे होते हैं जहाँ मरीज ने जिंदा रहने की उम्मीद छोड़ चुकी होती है। मेरे पास ज्यादातर मरीज दिल के मरीज होते हैं और इन मरीजों को ऐसा लगने लगता है कि वे अब मौत के बहुत ही करीब है। ऐसी हालत में मुझे मरीज का ऑपरेशन करना पड़ता है। यानी मुझे मरीज को मृत्यु से दूर करना का काम करना पड़ता है। इसी वजह से मेरे लिए हर मामला एक जैसा होता है। मेरे लिए हर मामला जटिल है और महत्वपूर्ण भी, क्योंकि यहाँ मामला मौत और जीवन के बीच का है। ऑपरेशन सही समय पर सही तरीके से हुआ तो ज़िंदगी है वरना मौत है।'

अप्रैल, 2017 तक 28 हज़ार से ज्यादा शल्य-चिकित्सा कर चुके अक्षय के मुताबिक, किसी भी सर्जरी को कामयाब बनाने के लिए चार चीज़ों की ज़रुरत होती हैं। पहली – सर्जन को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। दूसरी – सर्जन को अपनी ज़िम्मेदारी अपने हाथों में लेनी भी चाहिए। तीसरी – सर्जरी के लिए ज़रूरी सक्षम, अनुभवी और प्रभावी टीम होनी चाहिए। चौथी- मरीज की सुरक्षा और उसका कल्याण सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अगर ये चार चीज़ें हो तो कोई भी सर्जरी कामयाब होती है। अक्षय कहते हैं, 'हर डॉक्टर को मरीज की भलाई के लिए काम करना चाहिए न कि खुद की भलाई के लिए। मरीज की भलाई में ही डॉक्टर की भलाई होनी चाहिए। हर सर्जन के लिए हर मामला महत्वपूर्ण होना चाहिए, क्योंकि डॉक्टर को सर्जरी के लिए दूसरे मरीज मिल सकते हैं लेकिन सर्जरी फेल होने पर मरीज को दूसरी जान नहीं मिल सकती हैं।'

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अक्षय के जीवन से जुड़ी कई घटनाएं बेहद रोचक हैं। एक ऐसी ही घटना है जब कुछ बीमार बच्चों के अभिभावकों ने अपने बच्चों की सर्जरी अक्षय से ही करवाने की मांग को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का दरवाज़ा खटखटाया था।

हुआ यूँ था कि प्रोफेसर वेणुगोपाल की अगुवाई में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को पूर्ण स्वायत्तता देने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया गया था। इसी आंदोलन में सक्रीय भागीदारी निभाने की वजह से अक्षय को भी एम्स से निलंबित कर दिया गया। एक आदेश जारी कर उनके एम्स परिसर में आने पर ही पाबंदी लगा दी गयी थी। अक्षय के निलंबन की वजह से उन दिनों दिल की बीमारियों से परेशान कई शिशुओं का ऑपरेशन टल गया था। ऑपरेशन टल जाने की वजह से इन शिशुओं और बच्चों की जान खतरे में पड़ गयी थी। बड़ी बात ये है कि एम्स में शिशुओं का आर्टीरियल स्विच ऑपरेशन सिर्फ अक्षय ही किया करते थे। वे ही इस ओपन हार्ट सर्जरी की प्रक्रिया के महारथी थे। रेखा नाम की लड़की की माँ ने दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से ये कहते हुए गुहार लगाई कि उनकी बच्ची की जान बचाने के लिए अक्षय को ऑपरेशन करने की इज़ाज़त दी जाय। मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाह वाली एक पीठ ने रेखा की माँ की याचिका की सुनवाई की और एम्स के निदेशक और दूसरे अधिकारियों को तलब कर जवाब देने को कहा। पीठ ने ये जानना चाहा कि शिशुओं के दिल का ऑपरेशन कौन डॉक्टर सही तरह से कर सकता है। पीठ को जवाब मिला था – अक्षय। फिर क्या था, सारी सुनवाई के बाद न्यायाधीश शाह वाली पीठ ने कहा कि उनके लिए शिशुओं की जान बचाना प्राथमिकता है। इसकी वजह से पीठ/कोर्ट ने निलंबन के बावजूद अक्षय को शिशुओं के दिल का ऑपरेशन करने की इज़ाज़त दी थी। इस मामले की भी देश-भर में चर्चा हुई थी और कई सारे लोग ये जान गए थे कि अक्षय ही बच्चों के दिल का ऑपरेशन करने में महारत रखने वाले देश के नंबर एक डॉक्टर हैं।

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डॉ. वेणुगोपाल के साथ जुड़कर हासिल की नायाब कामयाबियां

1. भारत में पहला सफल हृदय-प्रत्यारोपण .... डॉ. वेणुगोपाल की टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर अक्षय ने कई सारी नायाब कामयाबियां हासिल की हैं। इनमें से सबसे बड़ी कामयाबी – भारत में पहली बार सफलतापूर्वक इंसानी दिल का प्रत्यारोपण किया जाना है। साल 1994 में डॉ. वेणुगोपाल के नेतृत्व में एक टीम ने दिल का सफल प्रत्यारोपण किया। 3 अगस्त, 1994 को भारत में उस समय एक नया इतिहास रचा गया जब डॉ. वेणुगोपाल ने 20 सर्जनों की मदद से भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भारत का पहला हृदय-प्रत्यारोपण किया। इससे पहले भारत में कभी भी सफलतापूर्वक हृदय-प्रत्यारोपण नहीं किया गया। भारत के मरीज अपने दिल का प्रत्यारोपण करवाने के लिए विदेश जाया करते थे। डॉ. वेणुगोपाल की टीम की कामयाबी के बाद भारत में भी हृदय-प्रत्यारोपण का सिलसिला शुरू हुआ। बड़ी बात ये भी है कि इस नायाब कामयाबी के लिए भारत सरकार ने डॉ. वेणुगोपाल को सम्मानित भी किया। भारतीय संसद में भी इस कामयाबी के लिए डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम की प्रशंसा की गयी। एयर इंडिया ने वेणुगोपाल को जीवन-भर अपने विमानों में भारत-भर में कहीं भी मुफ्त में यात्रा करने की सुविधा प्रदान की। डॉ. वेणुगोपाल की टीम में अक्षय की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण थी।

2. अंग पुनः स्थापन बैंकिंग संस्था की स्थापना ... डॉ. वेणुगोपाल, अक्षय और दूसरे डॉक्टरों की मेहनत और पहल का ही नतीजा था कि भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में अंग पुनः स्थापन बैंकिंग संस्था की स्थापना हो पायी। इस संस्था को स्थापित करने का मकसद भारत में अंग दान को प्रोत्साहित करना, इंसान के अलग-अलग अंगों का सही और समान वितरण/संरक्षण और इस्तेमाल था। इससे पहले भारत में ‘ब्रेनडेड’ व्यक्तियों के अंगों को लेने और उन्हें सही तरह से संरक्षित करने और दूसरे लोगों में इन अंगों का प्रत्यारोपण कर लोगों की जान बचाने का कोई प्रभावी तरीका नहीं था। अंग पुनः स्थापन बैंकिंग संस्था की वजह से भारत में ऑर्गन डोनेशन को बढ़ावा मिला और इससे अंग प्रत्यारोपण की एक मज़बूत व्यवस्था भी भारत में बन पायी। कई सारे सरकारी और निजी चिकित्सा संस्थानों ने भी अंग पुनः स्थापन बैंकिंग संस्था की तरह ही अपने यहाँ भी संस्थाएं खोलीं और उन्हीं संस्थाओं की वजह से अलग-अलग अंगों का प्रत्यारोपण भी भारत में शुरू हो पाया।

3. भारत में शल्य-चिकित्सा का दायरा बढ़ा ... डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने भारत में शल्य-चिकित्सा के दायरे को भी विस्तार दिया। पहले भारत में बच्चों की छाती में होने वाले कैंसर का इलाज नहीं किया जाता था। ऐसा माना जाता था कि छाती में कैंसर को निकालने के दौरान दिल पर बुरा असर पड़ता है और मरीज की जान जाने का खतरा होता है। लेकिन, डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने मिलकर बच्चों में छाती से कैंसर निकालने के लिए भी सर्जरी करना शुरू किया। इससे भारत में कई बच्चों की जान बचाई जाने लगी। नब्बे के दशक से पहले भारत में नवजात शिशुओं में होने वाले ‘ट्रैन्स्पज़िशन ऑफ़ ग्रेट आर्टरीज़’ नामक दिल की बीमारी का भी इलाज नहीं किया जाता था। डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने मिलकर दिल की इस बीमारी को शल्य-चिकित्सा के ज़रिये दूर करना शुरू किया। होता यूँ था कि बच्चे के जन्म के कुछ ही घंटों में इस बीमारी का इलाज शल्य-चिकित्सा के ज़रिये न किये जाने के शिशु की मौत हो जाती है। कई बार तो ऐसा होता है कि अभिभावकों को इस बात का पता ही नहीं लगता कि उनकी संतान को ‘ट्रैन्स्पज़िशन ऑफ़ ग्रेट आर्टरीज़’ बीमारी है। जब तक अभिभावकों को बीमारी का पता लगता है तब तक शिशु को बचाना नामुमकिन हो जाता है। डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने ये व्यवस्था की कि जन्म के समय ही ये पता लग जाय कि शिशु का हृदय स्वस्थ है या नहीं या फिर उसे ‘ट्रैन्स्पज़िशन ऑफ़ ग्रेट आर्टरीज़’ जैसी कोई बीमारी है। डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने न केवल ‘ट्रैन्स्पज़िशन ऑफ़ ग्रेट आर्टरीज़’ का इलाज शल्य-चिकित्सा के ज़रिये करना शुरू किया बल्कि अपनी तकनीकों से ये भी सुनिश्चित करवाया कि इस बीमारी से निजाद से किये जन्म के तुरंत बाद ही शल्य-चिकित्सा करना ज़रूरी नहीं है। इस बीमारी का पता लगने के बाद 2 माह से लेकर 9 साल तक की उम्र के बच्चे की शल्य-चिकित्सा कर उसे इस बीमारी से मुक्ति दिलाई जा सकती है। भारत में इस बीमारी का इलाज शुरू होने के बाद विदेशों से कई सारे मरीज अपना इलाज करवाने भारत आने लगे। डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने इसी तरह से शल्य-चिकित्सा के ज़रिये दिल से जुड़ी कई बीमारियों का इलाज भारत में मुमकिन करवाया। इसका नतीजा ये हुआ कि इलाज ने लिए भारतीयों का विदेश जाना बंद हुआ और उल्टे इलाज करवाने के लिए कई विदेशी भारत आने लगे।

डॉ. पी. वेणुगोपाल 

डॉ. पी. वेणुगोपाल 



4. इंटीग्रेटेड प्रैक्टिस यूनिट की स्थापना और लाइलाज समझे जाने वाली बीमारियों के इलाज का निजाद ... नब्बे के दशक से पहले होता ये था कि अगर कोई मरीज अपनी किसी बीमारी के इलाज के लिए किसी डॉक्टर या सर्जन या विशेषज्ञ के पास जाता था और वो सर्जन या डॉक्टर या विशेषज्ञ परीक्षण और सभी तरह की जांच के बाद ये कह देता था कि इस बीमारी का इलाज नहीं हो सकता तब ये मान लिया जाता था कि वाकई इलाज नहीं हो सकता। ऐसे में कई बार ऐसे होता था कि इलाज मुमकिन था लेकिन वो हो नहीं पाता था। इलाज किसी एक स्पेशलाइजेशन के डॉक्टर से संभव नहीं था लेकिन दो, तीन या उससे ज्यादा स्पेशलाइजेशन वाले डॉक्टर मिलकर उस मरीज का इलाज कर सकते थे। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने एक ऐसी व्यवस्था की जिसमें एक डॉक्टर या सर्जन के इलाज न कर पाने की स्थिति में अलग-अलग विभागों के डॉक्टरों की एक टीम मिलकर मरीज का परीक्षण करेगी और ये मिलकर फैसला करेगी कि मरीज का इलाज किस तरह से संभव है। इसी व्यवस्था को नाम दिया गया – इंटीग्रेटेड प्रैक्टिस यूनिट। इस यूनिट की स्थापना का नतीजा ये हुआ कि किसी विभाग के डॉक्टर या सर्जन के मरीज की बीमारी का इलाज न कर पाने की स्थिति में सभी संबंधित विभागों के डॉक्टरों की एक टीम मरीज के मामले को अपने हाथ में लेगी और उसकी बीमारी के इलाज का तरीका निकालेगी। एक मायने में इस यूनिट की वजह से ये हुआ कि भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान आने वाला कोई भी मरीज बिना इलाज के बाहर नहीं जाएगा।

5. भारत में पहली बार एक्स्ट्रा-कॉरपोरियल मैम्ब्रेन ऑक्सीजेनेशन (ईसीएमओ) डिवाइस का इस्तेमाल ... भारत में एक्स्ट्रा-कॉरपोरियल मैम्ब्रेन ऑक्सीजेनेशन यानि (ईसीएमओ) उपकरण/डिवाइस का इस्तेमाल भी पहली बार भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ही हुआ और इसका श्रेय भी डॉ. वेणुगोपाल को उनकी टीम को ही जाता है। एक्स्ट्रा-कॉरपोरियल मैम्ब्रेन ऑक्सीजेनेशन डिवाइस एक ‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम’ है। यह डिवाइस शरीर को उस वक्त ऑक्सीजन सप्लाई करने में मदद करता है, जब किसी मरीज के फेफड़े या दिल काम नहीं कर पाते हैं। इस डिवाइस का इस्तेमाल तब किया जाता है, जब मरीज सांस ले पाने के प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा हो। इस उपकरण के इस्तामल के लिए शरीर के किसी एक नस से खून निकालकर उसे मशीन से जोड़ दिया जाता है,जिससे बाईपास तरीके से खून पूरे शरीर में प्रवाहित होने लगता है। ईसीएमओ मशीन नसों में बह रहे खून के जरिए काम करती है। ईसीएमओ खून में आक्सीजन जोड़ती है और कार्बन डाइऑक्साइड को हटा देती है। इसके साथ ही यह खून को गर्म भी करती है और नसों में भेजता है। कई मामलों में ईसीएमओ उपकरण पूरे शरीर में खून को प्रवाहित भी करता है। ये खून को दिल और फेफड़ों से भी बायपास करने देता है। भारत में इस उपकरण के इस्तेमाल से पहले कमज़ोर दिल वाले बच्चे जल्द ही दम तोड़ देते थे। कमज़ोर दिल वाले बच्चों को सर्जरी के लायक बनाना आसान नहीं था। लेकिन, इस उपकरण के इस्तेमाल के बाद से कमज़ोर दिल वाले बच्चों को भी सर्जरी के लायक बनाया गया और उनपर सर्जरी कर उन्हें दिल की बीमारियों से मुक्ति दिलाई गयी।

6. स्टेम सेल थेरेपी की भी शुरूआत का श्रेय ... भारत में स्टेम सेल थेरेपी की भी शुरूआत डॉ. वेणुगोपाल और उनकी टीम ने भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से ही शुरू की। स्टेम सेल थेरेपी ने भी भारतीय चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति लाई। स्टेम सेल थेरेपी की वजह से लाइलाज समझे जाने वाली कई बीमारियों का इलाज मुमकिन हो पाया। इतना ही नहीं स्टेम सेल थेरेपी की वजह से कई बीमारियों का जटिल इलाज सरल हो गया। इसी तरह से कई नायाब कामयाबियां हासिल करते हुए डॉ. वेणुगोपाल की टीम ने भारत के चिकित्सा-क्षेत्र में एक नयी और बड़ी क्रांति लाई और नया इतिहास लिखा। इस गौरवशाली इतिहास को लिखने में अक्षय की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

गौर देने वाली बात ये भी है कि अक्षय ने अपने खुद के बल पर भी कई सारी नायाब कामयाबियां हासिल की हैं। वे भारत में रोबोटिक कार्डियक सर्जरी करने वाले पहले भारतीय डॉक्टर हैं। यानी अक्षय ने ही पहली बार भारत में एक रोबोट की मदद से दिल का ऑपरेशन किया है। अक्षय ने कई ऐसे ऑपरेशन किये हैं जोकि भारत में पहली बार किये गए। उन्होंने हर जगह से नकार दिए गए मरीजों की शल्य-चिकित्सा करते हुए भी अपनी कामयाबी की कहानी में नए-नए सुंदर अध्याय जोड़े हैं।

माँ ने अक्षय को बीमारी से मुक्ति दिलवाने के लिए शिव-पार्वती के मंदिर में दे दिया था दान, शादी करवाने के लिए वापस मंदिर से वापस लिया दानस्वरूप दिया अपना बेटा

अक्षय के जीवन से जुड़ी एक बहुत ही बेहद दिलचस्प घटना है। जब अक्षय का जन्म हुआ था तब से वे बहुत बीमार रहा करते थे। माता-पिता ने कई डॉक्टरों को दिखाया लेकिन उनकी तबीयत ठीक नहीं हुई। शिशु-अवस्था से ही वे किसी अनजान बीमारी का शिकार हो गए थे। बचपन के शुरूआती सालों में घर और अस्पताल –इन्हीं दोनों के बीच चक्करों में उनका जीवन सिमट कर रह गया था। माँ आस्थावान थीं, भगवान में उनका अटूट विश्वास था। माँ शिव की भक्त थीं। जब डॉक्टर अक्षय की बीमारी का इलाज नहीं कर पाए तब माँ ने ईश्वर का सहारा लिया। खूब पूजा-पाठ किया। व्रत किया, अनुष्ठान करवाया। फिर भी अक्षय की तबीयत ठीक नहीं हुई। एक पांडा ने सलाह दी कि अगर बालक अक्षय को शिव-मंदिर में दान दे दिया जाएगा तब उसकी तबीयत ठीक होगी। आखिरी उम्मीद समझकर माँ ने बालक अक्षय को शिव-पार्वती के मंदिर को दान दे दिया। दान का ये मतलब नहीं था कि बालक शिव-पार्वती के मंदिर में ही रहे। बालक शिव-पार्वती की संतान हो गया था लेकिन उसके पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी जन्म देने वाले माता-पिता की ही थी। शायद ये चमत्कार ही था कि शिव-पार्वती को दान देने के बाद अक्षय की तबीयत पूरी तरह से ठीक को गयी और वो भी सामान्य बालकों की तरह की खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने लगा था। इसी घटना से जुड़ी एक और दिलचस्प घटना भी है। सारी पढ़ाई पूरी होने और नौकरी लग जाने के बाद भी अक्षय की शादी नहीं हो पा रही थी। कुछ न कुछ कारणों से रिश्ता बन ही नहीं पा रहा। इस बार भी पंडों की सलाह ली गयी। पंडों से माता-पिता को याद दिलाया कि अक्षय को शिव-पार्वती के मंदिर को दान में दे दिया गया था और इसी वजह से उनकी शादी नहीं हो पा रही। अक्षय की शादी करवाने के लिए पहले उन्हें मंदिर को दिया अपना दान वापस लेना चाहिए। माता-पिता ने पंडों की बात मानते हुए अक्षय को शिव-पार्वती मंदिर से वापस लिया। दानस्वरूप दिए गए अपने बेटे को मंदिर से वापस लेते ही अक्षय का रिश्ता पक्का हो गया और उनकी शादी भी हो गयी।

दिल का दिलचस्प डॉक्टर और डॉक्टर का दिलचस्प दिल

हज़ारों लोगों को दिल की बीमारियों से मुक्ति दिला चुके अक्षय को दिल की कई बातें बहुत ही दिलचस्प लगती हैं। वे कहते हैं, “शरीर के सब अंग कभी न कभी सो जाते हैं। ब्रेन भी सो जाता है। आदमी कुछ देर के लिए सांस लेना भी बंद कर सकता है। लेकिन, दिल की एक ऐसी चीज़ है जो कभी सोती नहीं है। दिल कभी आराम नहीं करता। वो चलते रहता है और दिल के रुकने का मतलब है-ज़िंदगी का ख़त्म हो जाना।” इंसानी दिल की खूबियाँ गिनाते हुए अक्षय ने कहा, “माँ के गर्भ में जब बच्चे का जन्म होता है तब शरीर के सभी अंग अपनी-अपनी जगह पर होते हैं। लेकिन, दिल एक ऐसा अंग है जो पहले गले में होता है और फिर आगे चलकर अपनी सही जगह पर जाकर बैठता है। दिल का विकास गले में ही शुरू होता, लेकिन वो छाती में जाकर बैठता है।” अक्षय ने ये भी कहा, “दिल के शरीर के बीचोंबीच होने के पीछे भी एक ख़ास वजह है। शरीर में दिल का स्थान जहाँ है वो जगह शक्ति ही होती है, वो जगह भावनाओं की होती है, यही वो जगह है जो ज़िंदगी का मकसद तय करती है।”

खुद के दिल का डॉक्टर बनने की वजह बताते हुए अक्षय ने कहा, “मुझे जब समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे क्या बनाना है जब मैं डॉ। वेणुगोपाल से मिला था। मेरे गुरु अनादि कृष्णा पात्रा के कहने की वजह से ही दिल का ऑपरेशन करने का तरीका सीखने के लिए मैं डॉ। वेणुगोपाल से मिला था। डॉ। वेणुगोपाल के दिल का ऑपरेशन करने का तरीका सीखते हुए मैंने तय कर लिया था यही मेरी ज़िंदगी है। दिल का ऑपरेशन करने के बाद आपको ये मालूम हो जाता है कि मरीज ठीक होगा या नहीं। अगर आपने सही ऑपरेशन किया है तो आप तभी मालूम पड़ जाएगा कि ऑपरेशन सही हुआ है और मरीज ठीक हो जाएगा। दिल के ऑपरेशन के मामले में ही रिजल्ट आपको तुरंत दिखाई देता है। ऑपरेशन सक्सेसफुल होने पर मरीज एक बार फिर पूरी तरह से ठीक हो जाता है और ऑपरेशन के कुछ ही दिनों बाद अपने सब काम सामान्य रूप से करने लगता है। लेकिन किसी दूसरे ऑपरेशन में ये मुमकिन नहीं है। उदहारण के तौर पर दिमाग का ऑपरेशन लीजिये, आपकी ऑपरेशन के बाद भी ये नहीं मालूम पड़ेगा कि मरीज ठीक होगा या नहीं और ठीक होगा तो कितना ठीक होगा और कब तक ठीक होगा। दिल के ऑपरेशन में आपको नतीजा ऑपरेशन के तुरंत बाद ही समझ में आ जाता है और इसी वजह से मैंने दिल का सर्जन बनने का फैसला लिया था।”

बातचीत के दौरान अक्षय ने ये भी बताया कि दो चीज़ों से उनके दिल को बहुत दुःख होता है –वे कहते हैं, “पहली चीज़ है बेवफाई। अगर कोई मेरे साथ बेवफाई करे तो मुझे बहुत दर्द होता है।मुझे ऐसे लोग बिलकुल पसंद नहीं जो मुसीबत में साथ देने वाले लोगों को भूल जाते हैं और अहसानफरामोश होते हैं। दूसरी चीज़ जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं है वो – लोगों को धोका देना, विश्वासघात करना। मुझे ऐसे लोगों से सख्त नफरत है जो झूठ बोलते हैं, जो हेराफेरी करते हैं।” महत्वपूर्ण ये भी है अक्षय आस्थावान हैं। भगवान में उनका अटूट विश्वास है। भगवान जगन्नाथ उनके इष्ट देव हैं। और, अक्षय अपनी बातों को मनवाने के लिए तत्व-ज्ञान का सहारा लेते हैं। विज्ञान और चिकित्सा-शास्त्र को छोड़ दें तो उनकी ज्यादातर बातें दार्शनिक ही होती हैं। लोगों की सेवा करने को ही अपने अपना सबसे बड़ा धर्म समझते हैं और ईश्वर से उनकी यही प्रार्थना होती है कि वे उनके हाथों जिस किसी मरीज का इलाज हो वो स्वस्थ रहे और उसका कल्याण हो।

अक्षय चाहते हैं कि वे आने वाले दिनों में और भी ज्यादा, ज्यादा से ज्यादा लोगों की सेवा करें। मरीजों के सही इलाज और लोगों की सेवा में ही दिल के इस डॉक्टर के दिल को सुकून मिलता है। अक्षय की अनेक खूबियों में एक खूबी ये भी है कि कई सारी नायाब कामयाबियों के बावजूद उनमें घमंड नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। सीधा-सादा जीवन है। वे कहते हैं, “मैं एक छोटा आदमी हूँ।”