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ऐसा क्या लिखा 'मियां डीडो' में कि घर-घर पहुंची किताब

ऐसा क्या लिखा 'मियां डीडो' में कि घर-घर पहुंची किताब

Friday July 27, 2018 , 6 min Read

मियां डीडो की लड़ाई पंजाब के शासक महाराजा रंजीत सिंह के खिलाफ थी। उसी शहीद मियां डीडो पर लिखी एक तुप्तप्राय पंजाबी पुस्तक का यशपाल निर्मल ने डोगरी में 'मियां डीडो' नाम से अनुवाद किया तो पहला संस्करण ही हाथोहाथ घर-घर पहुंच गया। उसका दूसरा संस्करण भी छापना पड़ा।

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यशपाल निर्मल बताते हैं कि सन् 2008 की बात है। उन दिनों वह देश के विभिन्न भागों से आए हुए प्रशिक्षुओं को भाषा विज्ञान और डोगरी पढ़ाने के लिए गेस्ट लेक्चरर नियुक्त हुए थे। अध्यापन के दौरान उन्होंने प्रशिक्षण के लिए डोगरी के प्रसिद्ध कवि, नाटककार एवं आलोचक मोहन सिंह को पटियाला बुलाया। 

सन् 1977 में जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती गांव गढ़ी बिशना में जन्मे डोगरी भाषा के लेखक, आलोचक, अनुवादक, संस्कृतिककर्मी एवं पत्रकार यशपाल निर्मल साहित्य अकादमी से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने डुग्गर प्रदेश के ऐतिहासिक लोक नायक तथा देशभक्त 'मियां डीडो' को अपने अनुवाद से पुनर्जीवित सा कर दिया है। मियां डीडो की की शहादत में जम्मू वासियों की यादें घुली हुई हैं। वह बताते हैं कि उन्होंने मियां डीडो नाटक का डोगरी में अनुवाद किया है। वास्तव में यह मूलतः पंजाबी भाषा में है। इसका नाम डीडो जम्वाल है। इसको लाला कृपा सागर ने लिखा है और यह सन् 1934 में लाहौर से प्रकाशित हुआ था। अक्सर सुनता रहता था कि पंजाबी भाषा में ‘डीडो’ कोई किताब है।

हमारे यहां ‘डीडो’ एक लोकनायक के रूप में प्रसिद्ध हैं। लोगों की उनमें बड़ी आस्था है। हमारा लोक साहित्य मियां डीडो की बहादुरी के किस्सों से भरा पड़ा है। लोक गीतों, लोक कहानियों एवं लोक गाथाओं के माध्यम से हम अपने बड़े बुजुर्गों से डीडो की बहादुरी के बारे में बचपन से ही सुनते आए हैं परंतु इतिहास में डीडो नदारद थे। एक तरफ जहां लोक मानस में डीडो को इतना मान सम्मान हासिल था, वहीं उनके बारे में हमारे बुद्धिजीवी एवं साहित्यक समाज के पास कोई खास जानकारी नहीं थी।

यशपाल निर्मल बताते हैं कि सन् 2008 की बात है। उन दिनों वह देश के विभिन्न भागों से आए हुए प्रशिक्षुओं को भाषा विज्ञान और डोगरी पढ़ाने के लिए गेस्ट लेक्चरर नियुक्त हुए थे। अध्यापन के दौरान उन्होंने प्रशिक्षण के लिए डोगरी के प्रसिद्ध कवि, नाटककार एवं आलोचक मोहन सिंह को पटियाला बुलाया। एक दिन उन्होंने बातों-बातों में कहा - 'यार निर्मल पद्मश्री रामनाथ शास्त्री अक्सर कहा करते थे, मियां डीडो पर पंजाबी भाषा में कोई पुस्तक है। परंतु क्या है, किसी को कुछ पता नहीं है। आप यहां पर हो तो वह किताब ढूंढने का प्रयास करो ताकि पता चल सके कि पंजाबी लेखक ने डीडो के बारे में क्या लिखा है? चूंकि डीडो का संघर्ष, उनकी लड़ाई पंजाब के शासक महाराजा रंजीत सिंह के खिलाफ थी।

वह मोहन सिंह की बातों से बहुत प्रभावित हुए और मियां डीडो पर लिखी पंजाबी किताब की खोज में जुट गए। पंजाबी यूनीवर्सिटी की लाइब्रेरी, पब्लिक लाइब्रेरी और भाषा विभाग के साथ-साथ स्थानीय साहित्यकारों की घरेलू लाइब्रेरियां भी छान मारीं। डीडो पर कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं हुई। आखिर में हार कर उन्होंने अपने एक विद्यार्थी हरप्रीत सिंह से इस विषय में बात की। वह डोगरी सीखने के साथ-साथ पंजाबी यूनिवर्सिटी से थिएटर पर पीएचडी भी कर रहा था। उसने बताया कि किताब तो मिल जाएगी लेकिन उसके लिए पार्टी करानी पड़ेगी। उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, पार्टी भी करवा देंगे, पहले वह किताब तो ला दो। कुछ दिनों बाद हरप्रीत वह किताब ले आया। उसके बाद खुशी का ठिकाना नहीं रहा। किताब थी, सन् 1934 में लाहौर से प्रकाशित लाला कृपा सागर का लिखी ‘डीडो जम्वाल’।

कोई सोच भी नहीं सकता कि उससे उन्हें कितनी खुशी मिली। पुस्तक थी बहुत ही खस्ता हालत में। वह जैसे ही उसका पन्ना पलटते, वह भुरभुरा कर बिखरने लग जाती। इस बात से वह परेशान हो गए। फिर उन्होंने पूरी पुस्तक का फोटोस्टेट करवाया। मूल प्रति उन्होंने लौटा दी और छायाप्रति का अध्ययन करने लगे।

'पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद उन्हें अपनी डोगरा कौम पर एक तरह से शर्म महसूस हुई। जिस व्यक्ति ने अपनी मातृभूमि और अपनी कौम के लिए इतना कुछ किया, अपना और अपने परिवार का बलिदान कर दिया, उसको हमने, हमारे इतिहासकारों ने भी भुला दिया। इतिहास में अगर कहीं नाम आता भी है तो वह इस तरह से कि डीडो लुटेरा था। मैंने इस पंजाबी नाटक को दो-तीन बार पढ़ा। जब भी नाटक को पढ़ता आंखों से आंसू अपने आप बहने लगते।

नाटक पढ़ते-पढ़ते मैं कब डीडो बन जाता, मुझे पता ही न चलता। डीडो के बारे में बचपन से ही किस्से कहानियां अपने बड़े बुजुर्गों से सुनते आए थे। उनके व्यक्तित्व से मैं बहुत ही प्रभावित था। डीडो मेरे आदर्श पुरुषों में से एक हैं। मैंने विचार किया कि इस महान आत्मा के साथ डोगरी कौम को परिचित करवाना चाहिए। इसके बाद उन्होंने पूरी पुस्तक का डोगरी भाषा में अनुवाद कर दिया। इस प्रकार सन् 2011 में पंजाबी नाटक 'डीडो जम्वाल' डोगरी में 'मियां डीडो' शीर्षक से प्रकाशित होकर डोगरी पाठकों के हाथों तक पहुंच गया।'

यशपाल निर्मल बताते हैं कि वह जब इस नाटक का अनुवाद कर रहे थे तो उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ डोगरा कौम को अपने लोकनायक डीडो से परिचित करवाना था लेकिन इसका जो उन्हें सम्मान मिला, वह उनकी उम्मीद से कहीं बढ़ कर था। इस पुस्तक का पहला संस्करण एक वर्ष के भीतर ही समाप्त हो गया। इसको लोगों ने हाथोहाथ खरीदा जबकि डोगरी की किताबों को खरीद कर तो क्या लोग मुफ्त में भी नहीं पढ़ते। फिर दूसरा संस्करण प्रकाशित करवाना पड़ा। डोगरी के स्तम्भ कहे जाने वाले कई स्थापित साहित्यकारों, विद्वानों और आलोचकों ने इस नाटक पर अपने शोधपरक एवं आलोचनात्मक लेख लिखे। डोगरी शोध पत्रिका 'सोच-साधना' ने इस पर अपना विशेषांक प्रकाशित किया। इसके साथ ही वर्ष 2014 का साहित्य अकादमी का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार मुझे मिला। मेरे इस अनूदित नाटक को आधार बना कर इसके अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू एवं कश्मीरी भाषाओं में अनुवाद हो रहे हैं।

यशपाल निर्मल बताते हैं कि सबसे पहले सन् 1996 में उन्होंने श्रीमद्भागवत का डोगरी में अनुवाद किया था। उसके बाद ‘सिद्ध बाबा बालक नाथ’ का हिन्दी से डोगरी में अनुवाद किया। इसके ‘मियां डीडो’, शोधग्रंथ ‘देवी पूजा विधि विधान : समाज सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘वाह्गे आह्ली लकीर’ का पंजाबी में अनुवाद किया। साथ ही ‘मनुक्खता दे पैह्रेदार : लाला जगत नारायण', ‘घड़ी’, ‘सरोकार’ आदि का भी अनुवाद किया। उनकी कई अनूदित पुस्तकें प्रकाशन के इंतजार में हैं। वह डोगरी, हिन्दी, पंजाबी, अंग्रजी और उर्दू भाषाओं में काम कर रहे हैं। मौलिक लेखन की उनकी पहली पुस्तक ‘अनमोल जिंदड़ी’ सन् 1996 में प्रकाशित हुई थी।

उसके बाद ‘लोक धारा’, ‘बस तूं गै तूं ऐं’ प्रकाशित हुई। अब तक उनकी कुल 24 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन एवं अनुवाद के लिए उनको जम्मू-कश्मीर कला, संस्कृति एवं भाषा एकेडमी सहित कई गैर-सरकारी संस्थाओं से पुरस्कृत हो चुके हैं। यशपाल निर्मल बताते हैं कि उनके घर में ऐसा कोई साहित्यक माहौल नहीं था। पिता किसान थे। बचपन में वह भाई-बहनों के साथ बैठकर लोक कथाएं सुना करते थे। उसी सब का संस्कार रहा। उन्होंने लेखन की शुरुआत कविता से की थी। उसके बाद कहानियां लिखने लगे। अनुवाद तो शुरू से ही उनका पसंदीदा विषय रहा है। सन् 1998 से पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद वह आलोचना में भी हाथ आजमाने लगे। वह दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि प्रमुख समाचारपत्रों में काम कर चुके हैं।

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