Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

अमृतलाल नागर जन्मदिन विशेष: फिल्मों पर भी चली नागर जी की कलम

अमृतलाल नागर जन्मदिन विशेष: फिल्मों पर भी चली नागर जी की कलम

Thursday August 17, 2017 , 5 min Read

अमृतलाल नागर एक आत्मकथ्य में लिखते हैं - 'मैंने यह अनुभव किया है, किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्मेगदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए।' नागर जी का आज जन्मदिन है।

अमृतलाल नागर (फाइल फोटो)

अमृतलाल नागर (फाइल फोटो)


बीसवीं सदी में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखक नागरजी 'तस्लीम लखनवी', 'मेघराज इंद्र' आदि नामों से भी कविताएं, स्केच, व्यंग्य आदि लिखते थे।

अमृतलाल नागर का जन्म गुजरात में हुआ, बसे अागरा में लेकिन रहे ज्यादातर लखनऊ में और वहीं से हास्य-व्यंग्य का पत्र 'चकल्लस' निकाला।

साहित्य अकादमी, पद्मभूषण से समादृत एवं हिंदी साहित्य को 'मानस के हंस', 'एकदा नैमिषारण्ये', 'नाच्यौ बहुत गोपाल', 'गदर के फूल', 'ये कोठेवालियाँ', 'अमृत और विष' जैसी कालजयी कृतियों से अलंकृत करने वाले यशस्वी लेखक अमृतलाल नागर का आज जन्मदिन है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के स्वातन्त्र्योत्तर परिदृश्य के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। बीसवीं सदी में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखक नागरजी 'तस्लीम लखनवी', 'मेघराज इंद्र' आदि नामों से भी कविताएं, स्केच, व्यंग्य आदि लिखते थे। उनका जन्म गुजरात में हुआ, बसे अगरा में लेकिन रहे ज्यादातर लखनऊ में, और वहीं से हास्य-व्यंग्य का पत्र 'चकल्लस' निकाला।

उन्होंने तुलसीदास पर 'मानस का हंस' लिखा तो सूरदास पर 'खंजन नयन'। दोनो ही हिंदी साहित्य की अन्यतम कृतियां मानी जाती हैं। उन्होंने कुछ वक्त बंबई (मुंबई) में भी बिताते हुए फिल्मों पर भी कलम चलाई, लेकिन बाद में उनका वहां से मोहभंग हो गया था। क्रांतिकारी लेखक शिवपूजन सहाय के पुत्र कथाकार मंगलमूर्त्ति लिखते हैं कि 'मेरे पिता से नागरजी का विशेष पत्राचार चालीस के दशक में हुआ था, जब वह 'चकल्लस' निकाल रहे थे। संभवतः 1984 में मैं नागर जी से उनकी चौक वाली पुरानी हवेली में जाकर मिला था। मैं कुछ ही घंटों के लिए शायद पहली बार एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए लखनऊ आया था, लेकिन मेरा असली मकसद नागर जी का दर्शन करना था। अपरान्ह में मैं चौक पहुंचा और स्थान-निर्देश के अनुसार एक पानवाले से उनका पता पूछा।

बड़े उल्लास से उसने मुझे बताया, 'अरे, गुरूजी इसी सामने वाली गली में तो रहते हैं।' एक बड़े से पुराने भारी-भरकम दरवाजे की कुंडी मैंने बजाई। कुछ देर बाद एक महिला ने दरवाजा खोला। मैंने अपना परिचय दिया और एक लंबा आंगन, जिसके बीच में पेड़-पौधे लगे थे, पार कर एक बड़े-से कमरे में दाखिल हुआ। देखा नागर जी एक सफेद तहमद लपेटे खुले बदन बिस्तर पर पेट के बल लेटे लिखने में मशगूल थे। मैंने अपना परिचय दिया तो मोटे चश्मे से मुझे देखते हुए उठे और मुझे बांहों में घेरते हुए कुछ देर मेरा माथा सूंघते रहे। अभिभूत मेरी आंखें भीग गईं। फिर मुझे अपने पास बिस्तर पर बैठाया और पुरानी स्मृतियों का एक सैलाब जैसा उमड़ने लगा। मुझे लगा जैसे मेरे पिता भी वहीं उपस्थित हों।

मैं देर तक उनके संस्मरण सुनता रहा और बीच-बीच में अपनी बात भी उनसे कहता रहा। मैंने देखा मेरे पिता के संस्मरण सुनाते-सुनाते उनकी आंखें भी भर-भर आती थीं। मैंने यह भी देखा कि उस कमरे की एक ओर अंधेरी दीवार पर मिट्टी की न जाने छोटी-बड़ी कितनी सारी मूरतें एक तरतीब से सजी थीं, जिनमें मेरी आंखें उलझी ही रही पूरे वक्त। मैं नागर जी की बातें सुनता रहा उन माटी की मूरतों के अश्रव्य संगीत की पार्श्वभूमि में। मुझे लगा, वहां कुछ समय के लिए अतीत जैसे हमारे पास आकर बैठ गया हो और एक ऐसा प्रसंग बन गया हो, जहां कथा, कथाकार, श्रोता, कृतियां और संगीत सब एक मधुर झाले की तरह बजने लगे हों।

मेरी यह तंद्रा तब भंग हुई, जब किसी ने चाय लाकर रखी। नागर-दर्शन की वह दुपहरी मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय प्रसंग है। नागर जी का वह स्नेहपाश, उनके वह संस्मरण जो हिंदी साहित्य के एक युग को जीवंत बना रहे थे', उनकी आर्द्र आंखें, अंधेरी दीवार पर रखी माटी की वे मूरतें, जो उनके कथा-संसार का एक मूर्त-नाट्य प्रस्तुत कर रही थीं – सबने मेरे मानस-पटल पर ऐसी छाप छोड़ दी, जो अब अमिट हो गई।'

नागरजी का 1929 में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से परिचय हुआ। वह 1939 तक जुड़े रहे। निराला जी के व्यक्तित्व ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। सन 30 से 33 तक का समय लेखक के रूप में उनके लिए बड़े संघर्ष का रहा। वह कहानियाँ लिखते, गुरुजनों से पास भी करा लेते परंतु जहाँ कहीं उन्हेंव छपने भेजते, वे गुम हो जाती थीं। रचना भेजने के बाद वह दौड़-दौड़कर पत्र-पत्रिकाओं के स्टालल पर बड़ी आतुरता के साथ यह देखने जाते थे कि मेरी रचना छपी है या नहीं। हर बार निराशा ही हाथ लगती। उन्हें बड़ा दुख होता था, उसकी प्रतिक्रिया में कुछ महीनों तक उनमें ऐसी सनक समाई कि लिखते, सुधारते, सुनाते और फिर फाड़ डालते थे। सन 1933 में पहली कहानी छपी। सन 1934 में माधुरी पत्रिका ने उन्हें प्रोत्साहन दिया। फिर तो बराबर चीजें छपने लगीं।

नागरजी एक आत्मकथ्य में लिखते हैं -'मैंने यह अनुभव किया है कि किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्मेडदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए। सन 1935 से 37 तक मैंने अंग्रेजी के माध्यिम से अनेक विदेशी कहानियों तथा गुस्ताटव फ्लाबेर के एक उपन्याजस मादाम बोवेरी का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह अनुवाद कार्य मैं छपाने की नीयत से उतना नहीं करता था, जितना कि अपना हाथ साधने की नीयत से। अनुवाद करते हुए मुझे उपयुक्ति हिंदी शब्दोंा की खोज करनी पड़ती थी। इससे मेरा शब्दे भंडार बढ़ा। वाक्योंर की गठन भी पहले से अधिक निखरी।'

पढ़ें: बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी