जातिगत भेदभाव के बावजूद करोड़ों रुपये का कारोबारी साम्राज्य खड़े करने में कामयाब रहे हैं रतिलाल मकवाना
रतिलाल मकवाना एक हज़ार करोड़ रुपये के कारोबारी साम्राज्य के मालिक हैं। उनकी गिनती देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों और उद्यमियों में होती है। मौजूदा समय में देश के दलित कारोबारियों की सूची में उनका स्थान शीर्ष-क्रम में आता है। उनकी कामयाबी की कहानी भी हर इंसान को प्रेरणा और प्रोत्साहन देने का दमखम रखती है। रतिलाल ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। वे आज़ादी के बाद से भारत में आये सभी बड़े सामाजिक, राजनीतिक और औद्योगिक परिवर्तनों के गवाह भी हैं। रतिलाल ने जीवन में छुआछूत, जातिगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और असहयोग की मार भी झेली है। दलित होने की वजह से उन्हें भी मंदिर में जाने से रोका गया, होटल में दलितों के लिए अलग से रखे जानेवाले बर्तनों में खाना खिलाया गया, नए कपड़े पहनने पर ताने मारे गए। बचपन और किशोरावस्था में वही काम करवाए गए जोकि सिर्फ पिछड़ी जाति के लोगों के लिए ही तय माने जाते थे। लेकिन, अपने पिता और दादा से विरासत में मिली हिम्मत और कारोबारी सूझ-बूझ से उन्होंने हर चुनौती को पार लगाया। अपने तेज़ दिमाग और मज़बूत दिल से रतिलाल ने चमड़े के अपने पुश्तैनी कारोबार को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया और ये साबित किया कि कोई कारोबार सामान के आधार पर अच्छा या बुरा नहीं होता और कारोबारी, जाति के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। रतिलाल ने बड़े-बड़े लोगों को ये कहने पर मजबूर किया कि चमड़ा काला सोना है और इसके कारोबार से भी करोड़ों का मुनाफा कमाया जा सकता है। रतिलाल ने अपने जीवन में काफी संघर्ष किया, तरह-तरह की समस्याओं का सामना किया। हार न मानने के ज़ज्बे और उनकी अपनी कुछ ख़ास खूबियों की वजह से वे कामयाबी की राह पर बढ़ते चले गए और कामयाबी की एक नायब कहानी के नायक बने। रतिभाई मकवाना की कहानी संघर्ष, हिम्मत, मेहनत और कारोबारी सूझबूझ से भरे किस्सों से भरी है और लोगों को विपरीत परिस्थितियों से लड़ने के लिये प्रेरणा देती है।
इस बेमिसाल कहानी की शुरूआत गुजरात में होती है जहाँ एक दलित परिवार में रतिलाल मकवाना का जन्म हुआ। रतिलाल का जन्म आज़ादी से पहले साल 1943 में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के भावनगर में रहता था। रतिभाई का बचपन मूलभूत सुविधाओं के अभाव और जातिगत भेदभाव के बीच बीता। ये वह दौर था जब जातिगत भेदभाव अपने चरम पर था। तकलीफों से भरे बचपन की यादें अब भी रतिलाल के मन में तरोताज़ा हैं। उन्हें आज भी वो छोटा घर याद है जिसमें सारा परिवार रहता था ... दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची और बच्चे। उन्हें अपने स्कूल के दिन भी याद हैं। उनको ये भी याद है कि दलित होने की वजह से उनको और उनके परिवारवालों को मंदिर में आने नहीं दिया जाता था। भावनगर में लोगों की आस्था और विश्वास के एक बहुत ही बड़े केंद्र खोडियार माता मंदिर में भी दलितों के प्रवेश पर निषेध था। दलितों के लिए मंदिर के बाहर माता की एक अलग मूर्ति लगाई गयी थी और दलित इसी मूर्ति की पूजा-अर्चना किया करते थे। दलितों को अगर मन्नत मांगनी भी होती तब भी उन्हें मंदिर के भीतर रखी मुख्य मूर्ति के दर्शन तक करने नहीं दिए जाते थे।रतिलाल बताते हैं कि उन्हें शहर में बाल कटवाने भी नहीं दिया जाता था। दलितों को अपने बाल कटवाने के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता था। दलितों के बाल काटने वाला नाई भी अलग होता था। दलितों के बाल काटने वाले नाई से सवर्ण जाति के लोग बाल नहीं कटवाते थे। दलितों को होटलों में भी आने नहीं दिया जाता था। दलितों को छूना और उनके छुए हुए किसी भी चीज़ का इस्तेमाल करना भी पाप माना जाता था। रतिलाल ने बताया कि वे पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल जाते थे लेकिन स्कूल में भेदभाव किया जाता था।
गरीबी,छुआछूत और जातिगत भेदभाव ने रतिलाल के बालमन पर बहुत गहरा असर किया था। वे कहते हैं, “मुझे बहुत बुरा लगता था। समझ में नहीं आता था कि हमारे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जाता है। हम भी तो इंसान हैं फिर हमें भी मंदिर में जाने क्यों नहीं दिया जाता, होटल में खाने क्यों नहीं दिया जाता? हम दूसरों की तरह नए कपड़े भी नहीं पहन सकते थे।” रतिलाल को 1952 की वो घटना भी याद है जब भावनगर में दलितों ने मिलकर जुलूस निकाला था। पुलिस की मदद लेकर दलितों ने मंदिर में प्रवेश किया था और होटलों में जाकर खाना खाया था। रतिलाल के मुताबिक,आज़ादी मिलने के बाद हालात धीरे-धीरे सुधरे लेकिन जातिगत भेदभाव फिर भी नहीं मिटा। आज़ादी से पहले और उसके कई सालों बाद भी कई लोग दलितों को नौकरी नहीं देते थे। दलितों से मजदूरी ही करवाई जाती और वो सब काम करवाए जाते जोकि सवर्णों की नज़र में गंदे होते थे।
रतिलाल ने बताया कि उनके दादाजी को सुरेंद्रनगर जिले के राणपुर गाँव में एक यूरोपियन कंपनी की जिनिंग फैक्ट्री में नौकरी मिली थी। विदेशी कंपनियां ही दलितों को नौकरी पर रखती थीं। वीटल एंड कंपनी में रतिलाल के दादा को ब्रायलर अटेंडेंट की नौकरी मिली थी।नौकरी करते समय रतिलाल के दादा को कई लोगों से मिलने का मौका मिला था। बढ़ते मेल-मिलाप की वजह से उन्हें हर दिन कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता था। लोगों से बातचीत के दौरान ही उनके मन में भी कारोबार करने का ख्याल आया। इसके बाद उन्होंने कारोबार शुरू किया। रतिलाल के दादा पहले ऐसे व्यक्ति बने जिन्होंने परिवार में कारोबार करना शुरू किया। दादा से पहले पुरखों में किसी ने भी कारोबार नहीं किया था। रतिलाल के दादा ने जानवरों की हड्डियां और चमड़ा इकठ्ठा कर उसे भावनगर की एक बोन फैक्ट्री में बेचना शुरू किया। लेकिन, कुछ दिनों बाद ये काम बंद हो गया। फैक्ट्री में कुछ समस्याएं आने की वजह से रतिलाल के दादा का ये पहला कारोबार बंद हो गया। रतिलाल बताते हैं कि उनके दादा पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्होंने कारोबार की बारीकियां समझ ली थीं। बोन फैक्ट्री का काम बंद होने के बाद उन्होंने कराची जाकर बंदरगाह पर जहाज के सामान भी बेचे।
रतिलाल के पिता पहले खेत में मजदूरी का काम किया करते थे। कुछ साल मजदूरी करने के बाद वे भावनगर आ गए और उन्होंने पिकर बनाने का काम शुरू किया। जिनिंग फैक्ट्री में पिकर का इस्तेमाल पावरलूम कपड़ा बनाने के लिए किया जाता था। यह जानवरों के चमड़े से बनता है और ज्यादातर पीकर भैंस के चमड़े से ही बनाये जाते थे। उस समय कोई और समुदाय के लोग यह काम करने में हिचकिचाते थे। दलित होने के कारण मकवाना परिवार यह काम करता था। रतिलाल के दादा ने पिकर बनाने का काम शुरू किया था। एक के बाद एक परिवार के अन्य सदस्य भी पिकर बनाने के काम में लग गए थे। काम शुरू तो हो गया था लेकिन परेशानी ये थी कि उन दिनों ये काम करने के लिए भावनगर में ज़मीन मिलना भी मुश्किल था। भावनगर, राजा कृष्ण कुमारसिंह की रियासत थी। रतिलाल के पिता ने सुना था कि राजा बहुत अच्छे इंसान हैं और दयालु भी। पिता को लगा कि राजा उनकी मदद भी करेंगे। लेकिन, दिक्कत ये थी कि मदद की गुहार कैसे लगाई जाय। दलित होने के कारण राजा के दरबार में जाना नामुमकिन-सा था। लेकिन, इसी बीच रतिलाल के पिता के मन में एक ख्याल आया। उन्होंने अपनी बात राजा तक पहुंचाने के लिए उनकी गाड़ी के ड्राइवर की मदद लेने की सोची। मकवाना परिवार उन दिनों जानवरों का चारा बेचने का भी काम करता था। राजा की गाड़ी का ड्राइवर मकवाना परिवार से ही घोड़ों और दूसरे जानवरों का चारा खरीदता था। एक दिन रतिलाल के पिता ने राजा के ड्राइवर को अपनी परेशानी बताई। ड्राइवर ने उन्हें सलाह दी कि जब वह राजा को लेकर महल से बाहर निकलेगा तब वे महल के बाहर खड़े रहकर हाथ हिलाऐं और वह गाड़ी रोक देगा। ड्राइवर ने रतिलाल के पिता से कहा था कि जैसे ही वो गाड़ी रोकेगा तब उन्हें तुरंत राजा के सामने आकर फट से अपनी बात कह देनी होगी।
योजना के मुताबिक दिन और समय तय हुआ। तयशुदा स्थान पर रतिलाल के पिता समय से पहले ही पहुँच गए। तय योजना के मुताबिक रतिलाल के पिता ने राजा की गाड़ी के नज़दीक आते ही हाथ हिलाना शुरू कर दिया। ड्राइवर ने भी अपने वायदे के मुताबिक गाड़ी रोक दी। मौका मिलते ही रतिलाल के पिता ने राजा के सामने अपनी बात रख दी। राजा से पिकर का काम करने के लिए ज़मीन देने की गुज़ारिश की गयी। अपने स्वभाव के मुताबिक राजा ने अर्जी मान ली और अगले दिन महल में आकर बात करने का हुक्म दिया। भावनगर के राजा ने अगले दिन रतिलाल के पिता को चमड़े के पिकर बनाने के लिए मुफ्त में ज़मीन का आवंटन कर दिया। इस तरह से मकवाना परिवार में उद्योग की नींव पड़ी। कपड़ों की मिल में चमड़े का पिकर लूम में लगता था। पिकर पहले यूरोप से भारत में आता था। भारत में पिकर बनता ही नहीं था। द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से यूरोप से पिकर आना बंद हो गया। चूँकि टेक्सटाइल मिल/जूट मिल में पिकर के बगैर लूम(पॉवर लूम) का चलना मुश्किल था, भारत में भी पिकर बनाने का काम शुरू हुआ। चूँकि पिकर भैंस जैसे जानवरों के चमड़े से बनता था दलितों के अलावा कोई अन्य समुदाय के लोग इस काम को नहीं करते थे। रतिलाल के दादा ने पिकर बनाने का काम शुरू किया था, चूँकि काम चमड़े का था लोग उसे शहर में करने की इज़ाज़त नहीं देते थे और रतिलाल के पिता को लगा था कि अगर राजा उन्हें कहीं अलग से ज़मीन दे दें तो वे पिकर का कारोबार बड़े पैमाने पर कर सकते हैं। राजा ने जब ज़मीन दे दी तब रतिलाल के पिता ने बड़े पैमाने पर पिकर बनाने का काम शुरू किया। रतिलाल के पिता फैक्ट्री में जो पिकर बनते थे उन्हें मुंबई, कोलकाता, बैंगलोर, बड़ोदा, भिवंडी,सूरत आदि शहरों में बेचा जाने लगा। बड़ी बात ये है कि रतिलाल के पिता पिकर बनाने में इस्तेमाल में लाये जाने वाले तेल और चमड़े का आयात विदेश से करते थे। पिकर बनाने में एक ख़ास तौर की व्हेल मछली के तेल का इस्तेमाल होता था और रतिलाल के पिता ये तेल इंग्लैंड और नॉर्वे से मंगवाते थे। चमड़ा थाईलैंड, हांगकांग और सिंगापुर से मंगवाते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से भारत में पिकर आना बंद क्या हुआ था कि रतिलाल के पिता को कारोबार शुरू करने और उसका विस्तार करने का बड़ा मौका मिल गया था। भावनगर के राजा की मदद से पिकर की फैक्ट्री शुरू ही और कारोबार चल पड़ा। काम कई सालों तक काफी अच्छा चला। अपनी फैक्ट्री में रतिलाल के पिता हाथ से पिकर की मशीन चलाते थे। वे चाहते थे कि ऑटोमैटिक मशीन खरीदें ताकि काम आसन हो सके। कारोबार को नए पंख देने के लिये ऑटोमैटिक मशीन की दरकार थी। लेकिन,ऑटोमैटिक मशीन (स्वचालित यंत्र) खरीदने के लिए ज़रूरी रकम रतिलाल के पिता के पास नहीं थी। रतिलाल के पिता बैंक से कर्ज लेना चाहते थे, लेकिन बैंक के अफसर कर्ज देने से साफ़ इनकार कर देते थे। बैंक में भी जातिगत भेदभाव इस कदर हावी था कि अफसर लोन देने को तैयार नहीं थे। रतिलाल कहते हैं, “मेरे पिता ने कई बार कर्ज के लिए अर्जी दी थी, लेकिन किसी ने भी कर्ज नहीं दिया। स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र, जो कि पहले दरबार बैंक के नाम से जाना जाता था, के अफसर नागर ब्राह्मण थे और वे इस वजह से हमे लोन नहीं देते थे क्योंकि अगर वे लोन देते तो उन्हें कागज़ात पर 'चमड़ा' शब्द लिखना पड़ता। वे कागज़ पर 'चमड़ा' शब्द लिखने को भी पाप समझते थे। इन ब्राह्मण अफसरों की वजह से ही हमें लोन नहीं मिल पा रहा था।” इस घटना से साफ़ है कि आज़ादी मिलने और संविधान अमल में आने के बावजूद जातिगत भेदभाव और लोगों की मानसिकता नहीं बदली थी।
लेकिन, भावनगर में हुई एक बड़ी घटना के बाद रतिलाल के पिता को बैंक से लोन मिल गया। रतिलाल ने बताया कि 1955 में तत्कालीन केंद्रीय वाणिज्य मंत्री टी. टी. कृष्णमाचारी सरकारी दौरे पर भावनगर आये । वाणिज्य मंत्री ने भावनगर के जिला कलेक्टर से उन्हें पाँच तरह की इंडस्ट्रीज/फक्ट्रियाँ दिखाने को कहा। कलेक्टर ने जिन पांच फक्ट्रियों को चुना उनमें क रतिलाल के पिता की फैक्ट्री भी शामिल थी। जब मंत्री पिकर की फैक्ट्री पर पहुंचे तब उन्होंने रतिलाल के पिता से पूछा - क्या कोई परेशानी है? तब रतिलाल के पिता ने मंत्री को अपनी परेशानी बताई। रतिलाल के पिता ने बताया कि उन्हें बैंक से लोन नहीं मिल रहा है और अगर लोन मिल जाता है तो वे ऑटोमैटिक मशीन खरीद कर अपने कारोबार को बढ़ा सकते हैं। मंत्री ने भावनगर के कलेक्टर को निर्देश दिये कि वे जाकर बैंक के अफसरों से कहें – "ये चमड़ा नहीं बल्कि काला सोना है।" वाणिज्य मंत्री कृष्णमाचारी की वजह से रतिलाल के पिता को बैंक से लोन मिल गया और उन्होंने इस रकम से स्विट्ज़रलैंड से पिकर बनाने वाली ऑटोमैटिक मशीन मंगवा ली। ऑटोमैटिक मशीन आने के बाद पिकर का कारोबार तेज़ी से बढ़ा। जैसे-जैसे कारोबार बढ़ा वैसे-वैसे मुनाफा भी बढ़ा।
लेकिन कुछ कारणों से मकवाना परिवार में बंटवारा हो गया। रतिलाल के पिता के छह भाई थे। पहले सभी परिवार की भावनगर पिकर इंडस्ट्रीज में एक साथ काम किया करते थे, लेकिन बंटवारे के बाद सभी ने अपना अलग-अलग कारोबार शुरू किया। रतिलाल के पिता ने अपनी कंपनी का नाम गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड रखा। महज़ पचास हज़ार रुपये की पूंजी से गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड की शुरूआत की गयी थी। रतिलाल के पिता कारोबार की बारीकियों को समझते थे और इसी वजह से परिवार में बंटवारे के बाद भी उन्होंने शानदार ढंग से कारोबार किया। गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज को पहले साल में ही दो लाख रूपये का टर्नओवर हुआ। कड़ी मेहनत और कारोबारी सूझ-बूझ से रतिलाल के पिता ने धीरे-धीरे अपने कारोबार को आगे बढ़ाया। लेकिन, चुनौतियां कभी ख़त्म नहीं हुईं, संघर्ष हमेशा जारी रहा।
मकवाना परिवार का जब बंटवारा हुआ तब रतिलाल के पिता अकेले पड़ गए थे। उनकी सेहत भी ठीक नहीं थी। कारोबार में पिता की मदद करने के लिए रतिलाल को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। रतिलाल ने छठी क्लास तक शहर के म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ाई की थी। सातवीं में उनका दाखिला शहर के बड़े स्कूल – सनातन धर्म हाई स्कूल में करवा दिया गया। रतिलाल ने बताया कि म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ाई कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन सनातन धर्म हाई स्कूल में टीचर बहुत अच्छा पढ़ाते थे।
स्कूल में रतिलाल का सबसे पसंदीदा विषय -विज्ञान हुआ करता था। उनकी दिलचस्पी विज्ञान से जुड़े प्रयोगों में थी और वे बड़े होकर नए-नए प्रयोग करना चाहते थे। उनका सपना इंजीनियर बनने का था। लेकिन परिवार के बंटवारे के बाद उनके इस सपने पर पानी फिर गया। कारोबार में पिता की मदद करने के लिए रतिलाल को पढ़ाई छोड़नी पड़ी और वे कॉलेज नहीं जा पाए। किशोरावस्था में ही रतिलाल ने पिकर की फैक्ट्री का कामकाज संभालना शुरू कर दिया। रतिलाल भावनगर में फैक्ट्री में पिकर बनाने का काम देखते जबकि उनके पिता देश के अलग-अलग शहरों में जाकर पिकर की मार्केटिंग और सप्लाई करते। पिता और बेटे की जोड़ी ने कारोबार को खूब आगे बढ़ाया।एक सवाल के जवाब में रतिलाल ने बताया, “अगर मैं उस समय पिता की मदद नहीं करता तो कारोबार बंद हो जाता। पिता अकेले पड़ गए थे और वे अकेला सारा कारोबार नहीं संभाल सकते थे। मेरे भाई सभी बहुत छोटे थे और सिर्फ मैं ही पिता की मदद कर सकता था।” रतिलाल ने ये कहने में भी कोई संकोच नहीं किया कि, “अगर मैं उस समय और भी पढ़ता तो मैं आज जो भी हूँ उससे भी बड़ा होता। पढ़ाई छोड़ने का फैसला सिर्फ मेरा नहीं था,पिताजी भी चाहते थे कि मैं उनकी मदद करूँ।”
रतिलाल ने अपने पिता से बहुत कुछ सीखा-समझा है। पिता का बहुत गहरा प्रभाव रतिलाल पर पड़ा है। बातचीत के दौरान रतिलाल ने अपने पिता के बारे में भी कई सारी रोचक बातें हमें बताईं। रतिलाल ने बताया कि उनके पिता ने कई तरह के काम किये थे। भावनगर के राजा ने जापान की मदद से भावनगर में ही रबर की एक फैक्ट्री खोली थी। रतिलाल के पिता को इस फैक्ट्री में काम करने का मौका मिला था। इस फैक्ट्री में काम करते हुए वे जापानियों के सीधे संपर्क में भी आये थे। उन्होंने जापानियों से भी बहुत कुछ सीखा और समझा। रतिलाल बताते हैं कि जापानियों के साथ काम करते हुए ही उनके पिता के मन में कई नए आईडिया आये थे।
रतिलाल के पिता ने राणपुर में गुजराती के महान साहित्यकार और पत्रकार झवेरचंद मेघाणी की पत्रिका के प्रेस में भी काम किया था। उन्होंने कई दिनों तक इस प्रेस में पेपर फोल्डिंग का काम किया। रतिलाल के पिता ने चारा भी बेचा और आगे चलकर पिकर भी बेचे। पिकर की सप्लाई करने के लिए वे देश के अलग-अलग शहरों में भी गए। अक्सर उनका दिल्ली, कोलकाता और मुंबई आना-जाना होता था।रतिलाल ने अपने पिता के जीवन की एक बहुत ही दिलचस्प घटना भी सुनायी। ये घटना उस समय की है जब वे चारा बेचा करते थे। भावनगर के राजा के अलावा रतिलाल के पिता का चारा गोंडल के राजा के जानवरों के लिए भी जाता था। एक दिन रतिलाल के पिता ने गोंडल के राजा के जानवरों के लिए चारा अपने एक मजदूर के हाथों भेजा। मजदूर ने बदमाशी की और चारे के जगह मिट्टी डाल दी और उसे राजा के खलिहान ले गया। जब राजा को पता कि चारे की जगह मिट्टी आयी है तब वे बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने रतिलाल के पिता को अपने दरबार में तलब किया। राजा की नाराजगी की बात सुनकर रतिलाल के पिता घबरा गए, उन्हें ये डर भी सताने लगा कि कहीं राजा उन्हें जेल में न डाल दे। राजा के दरबार में पहुंचकर रतिलाल के पिता ने बताया कि उनकी कोई गलती नहीं है और उनके मजदूर ने बदमाशी की है। रतिलाल के पिता ने भरोसा दिलाया कि वे चारा वापस भिजवा देंगे और दुबारा ऐसी गलती होने नहीं देंगे। राजा ने उनकी बात मान ली। रतिलाल ने कहा, “मेरे पिताजी बहुत हिम्मतवाले इंसान थे। उनके पास बहुत अनुभव था, उन्होंने बहुत मेहनत की थी अपने जीवन में। वे मुझसे बहुत बातें करते थे और बातोंबातों में ही मुझे बहुत कुछ सिखाते थे।”
रतिलाल के पिता को एक ईसाई ने अपने घर पर रखकर पढ़ाया-लिखाया था। इसी ईसाई व्यक्ति की वजह से वे दूसरी कक्षा तक पढ़-लिख पाए थे। उन दिनों दलितों को स्कूल में आने ही नहीं दिया जाता था। रतिलाल के पिता भी कभी स्कूल नहीं जा पाए लेकिन उस ईसाई की वजह से उन्होंने पढ़ना-लिखना सीख लिया था। वे अपने बेटे रतिलाल को भी खूब पढ़ाना-लिखाना चाहते थे, लेकिन परिवार के बंटवारे के बाद वे अकेला पड़ गए और उन्हें कारोबार संभालने के लिए रतिलाल की मदद लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। कारोबार को जिन्दा रखने के लिए रतिलाल को अपनी पढ़ाई रोकनी पड़ी थी। पढ़ाई रोकने की वजह से ही वे पिता की हर मुमकिन मदद कर पाए। पिता और रतिलाल ने मिलकर कारोबार को खूब बढ़ाया। ऐसा भी नहीं था कि बाप-बेटे की जोड़ी के लिए राह हमेशा आसान रही। कारोबार में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। समय-समय पर नई चुनौतियां आकर सामने खड़ी हो जाती थीं।
सरकार की नीतियों की वजह से भी रतिलाल के पिता को कारोबार करने में कई परेशानियों को सामना करना पड़ा। फॉरेन एक्सचेंज की समस्या भी रही। 1965 में केंद्र सरकार ने ये तय किया था कि जो 33 फ़ीसदी प्रीमियम जमा करेगा उसी को आयात यानी इम्पोर्ट करने का लाइसेंस मिलेगा। विदेश से चमड़ा सस्ते में मिलता था जबकि भारत के बाज़ार में चमड़े की कीमत ज्यादा थी। रतिलाल के पिता इस वजह से घाटे से बच गए थे क्योंकि उन्होंने मुंबई के कारोबारियों से पुरानी दर पर चमड़ा खरीद लिया था। रतिलाल ने इसी बीच एक और बड़ी सूझ-बूझ वाला काम किया जिससे उनके पिता की कंपनी को काफी फायदा पहुंचा। ये घटना 1967 की है। रतिलाल के पिता इंग्लैंड से पिकर बनाने वाली हैड्रोलिक प्रेस मशीन मंगवाना चाहते थे, लेकिन सरकार की आयात नीति की वजह से वो काफी महंगी पड़ रही थी। रतिलाल ने इंग्लैंड से उस मशीन की ड्राइंग मंगवाई और वैसी ही मशीन भारत में बनवा डाली, जिससे उनके पिता को काफी बचत हुई और नयी मशीन बनने की वजह से कारोबार भी खूब बढ़ा। रतिलाल की इस पहल की वजह से मुनाफा तो हुआ ही साथ ही एक कारोबारी के रूप में उनका आत्मविश्वास भी खूब बढ़ा।
एक और बड़ी घटना 1971 में हुई। इस बार भी रतिलाल ने अपनी कारोबारी सूझ-बूझ का बखूबी परिचय दिया। ये घटना भी साबित करती है कि अलग सोच और सही समय पर सही फैसला करने की कला में रतिलाल माहिर हैं और वे बड़े अनूठे और मंझे हुए कारोबारी भी हैं। हुआ यूँ था कि 1971 में रतिलाल के नाम थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक से एक टेलीग्राम आया। ये टेलीग्राम रतिलाल को आधी रात को मिला था। उन दिनों फौरी तौर पर कोई सूचना देने के लिए टेलीग्राम का ही इस्तेमाल किया जाता था। उस समय बहुत ही कम लोगों के पास फोन थे और कोई भी मोबाइल फ़ोन की कल्पना तक नहीं कर सकता था। टेलीग्राम में सूचने दी गयी थी कि थाईलैंड में वहां की सरकार ने चमड़े पर एक्सपोर्ट ड्यूटी लगा दी है। ये सूचना रतिलाल के लिये काफी मायने रखती थी। उन्होंने थाईलैंड में तीन हज़ार रुपये प्रति टन के हिसाब से 30 मेट्रिक टन का आर्डर दिया हुआ था। सरकार द्वारा ड्यूटी लगाये जाने से चमड़े की कीमत करीब-करीब दुगुनी हो गयी। ये कोई अच्छी खबर नहीं थी, बल्कि बुरी खबर थे। लेकिन, रतिलाल घबराए नहीं और उन्होंने सूझ-बूझ से काम लिया। चूँकि उन्हें थाईलैंड से खबर पहले मिल गई थी उन्होंने बिना कोई समय गवाएं रातों-रात मलेशिया,सिंगापुर और हांगकांग से कोटेशन मंगवाए। उन्होंने रातोंरात ही चमड़े के बड़े आर्डर बुक करवा दिए। ये सारे आर्डर टेलीग्राम के ज़रिये ही बुक करवाए गए। रतिलाल ने इन तीन देशों से करीब अस्सी टन चमड़ा बुक करवाया। मलेशिया, सिंगापुर और हांगकांग के कारोबारियों को थाईलैंड में चमड़े पर एक्सपोर्ट ड्यूटी लगाये जाने की बात पता नहीं थी और उन्होंने रतिलाल का आर्डर ले लिया। बड़ी बात तो ये हुई कि थाईलैंड की देखादेखी मलेशिया, सिंगापुर और हांगकांग ने भी चमड़े पर एक्सपोर्ट ड्यूटी लगवा दी। चूँकि रतिलाल एक्सपोर्ट ड्यूटी लगने से पहले ही बड़ा आर्डर बुक करवा चुके थे उन्हें मलेशिया,सिंगापुर और हांगकांग से घाटा नहीं हुआ। थाईलैंड में हुए घाटे की भरपाई रतिलाल मलेशिया, सिंगापुर और हांगकांग से करने में कामयाब रहे थे। महत्वपूर्ण बात ये भी है कि एक्सपोर्ट ड्यूटी लगने के पहले ही मलेशिया, सिंगापुर और हांगकांग में चमड़ा बुक करवाने के वजह से रतिलाल को उन दिनों करीब चार लाख रूपये का फायदा हुआ था और ये रकम उनके एक साल की कमाई के बराबर थी। इस फायदे से रतिलाल को अपना कारोबार बढ़ाने में मदद मिली।
रतिलाल की एक खूबी ये भी है वे मौके को जल्दी पहचान लेते है और हर मौका का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। रतिभाई की दूरदर्शिता और बिना समय गवाएं त्वरित फैसले लेने की कला भी उन्हें अपने प्रतियोगियों से आगे रखती है। समय की मांग के अनुरूप रतिलाल ने दूसरे व्यवसाय में भी कामकाज शुरू किया। रतिलाल को जब अहसास हुआ कि पिकर का धंधा बैठने लगा है तब उन्होंने कुछ नया करने की सोचनी शुरू कर दी। हुआ यूँ था कि प्लास्टिक से बने पिकर बाज़ार में आने लगे। चमड़े के पिकर की मांग कम होने लगी थी। प्लास्टिक के पिकर किफायती थे और मुनाफा देने वाले भी। रतिलाल जान गए कि अब वक़्त आ गया है नया काम शुरू करने का। नया क्या किया जाय ? इसी सवाल का जवाब ढूँढने में लग गए थे वे। इसी दौर में रतिलाल की नज़र अखबार में छपे एक विज्ञापन पर पड़ी। इस विज्ञापन ने रतिलाल के कारोबारी जीवन को नयी दशा-दिशा दी।
रतिलाल ने अपने कारोबारी जीवन के उस महत्वपूर्ण पड़ाव के बारे में विस्तार से बताया। रतिलाल के मुताबिक, भावनगर में जिस जगह इलाके – कुंवरवाडा में पिकर बनाने की उनकी फैक्ट्री थी उसके आसपास प्लास्टिक की रस्सियाँ बनाने की फक्ट्रियाँ खुल गयी थीं। इस फक्ट्रियों में रस्सी बनने के लिए ज़रूरी कच्छा माल यानी हेच डी पी – हाई डेंसिटी पालीएथिलीन (प्लास्टिक) एक ही कंपनी(मफतलाल) बनाती थी और वो भी सीमित मात्रा में। इस वजह से बाज़ार में माल की कमी थी और कई बार विदेश से कच्चा माल मंगवाना पड़ता था। बाज़ार में हाई डेंसिटी पालीएथिलीन की कीमत ज्यादा थी। इसी दौरान 1968 में भारत सरकार के इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कारपोरेशन लिमिटेड (आईपीसीएल) ने बड़ोदा में अपनी एक फैक्ट्री खोली। आईपीसीएल ने एक विज्ञापन जारी कर सूचना दी कि उन्हें डिस्ट्रीब्यूटरों की ज़रूरत थी। आईपीसीएल को भावनगर, बड़ोदा और राजकोट में डिस्ट्रीब्यूटर चाहिए थे। रतिलाल को आईपीसीएल के विज्ञापन में एक बहुत बड़ा मौका नज़र आया। वैसे तो उन्होंने प्लास्टिक का काम पहले नहीं किया था लेकिन वे जानते थे कि प्लास्टिक के कारोबार से भी बड़े पैमाने पर मुनाफा कमाया जा सकता है। रतिलाल ने आईपीसीएल की एजेंसी के लिए आवेदन कर दिया। आवेदन करते समय रतिलाल ये जानते थे कि आईपीसीएल पालीप्रोप्लीन और लो-डेंसिटी पालीएथिलीन बनाता था और इसकी मांग भावनगर में कम थी। आईपीसीएल हाई-डेंसिटी पालीएथिलीन नहीं बनता है जिसकी मांग उनके इलाके की फक्ट्रियों में ज्यादा है, फिर भी उन्होंने आवेदन कर दिया। आवेदन करने के पीछे प्लास्टिक की रस्सियाँ बनाने वाले एक कारोबारी से मिली जानकारी थी। इस कारोबारी ने रतिलाल को बताया कि अगर हाई-डेंसिटी पालीएथिलीन के बजाय पालीप्रोप्लीन का इस्तेमाल किया जाता है तो रस्सियाँ मजबूत बनती हैं और उनका वजन भी कम होता है। इतना ही नहीं, हाई-डेंसिटी पालीएथिलीन की तुलना में पालीप्रोप्लीन काफी किफायती होता है। इस जानकारी से रतिलाल के दिमाग की बत्ती जल गयी और उन्होंने फट से आवेदन करने का फैसला कर लिया। भावनगर की एजेंसी के लिए रतिलाल के अलावा दो अन्य दावेदार भी थे– एक ऊँची जाति का व्यापारी और दूसरी प्लास्टिक की रस्सी बनाने वाली एक को-ऑपरेटिव सोसाइटी। रतिलाल भी जानते थे कि एजेंसी पाने की दौड़ में वे सबसे कमज़ोर खिलाड़ी थे क्योंकि न उनके पास बैंक गारंटी थी, न प्लास्टिक की दुनिया में काम करने का अनुभव। आवेदन करने के बाद रतिलाल एक बड़ौदामें आईपीसीएल के दफ्तर गए और अपने आवेदन के बारे में पूछताछ की। दफ्तर में आईपीसीएल के मार्केटिंग मैनेजर ने रतिलाल से कहा कि उनके आवेदन का परीक्षण किया जाएगा और फिर पड़ताल के लिए अधिकारी भावनगर भी आएंगे। मार्केटिंग मैनेजर की बात पर यकीन कर रतिलाल भावनगर आ गए। वे आईपीसीएल के अधिकारियों का इंतज़ार करने लगे। उन्हें लगता था कि अधिकारी जांच-पड़ताल करने उनके यहाँ आएंगे। तब इंतज़ार लम्बा होता गया और दो महीने से ज्यादा का समय बीत गया तब रतिलाल को शक हुआ। उन्होंने अपने आवेदन का सही हाल जानने के लिए अपने पारिवारिक मित्र और सांसद प्रसन्नवदन मेहता की मदद लेने की सोची। रतिलाल के पिता कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता थे और उस समय के सांसद प्रसन्नवदन मेहता से उनकी अच्छी दोस्ती थी। रतिलाल ने सांसद प्रसन्नवदन मेहता से जब मदद पूछी तब उन्होंने तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा को चिट्टी लिखी। चिट्टी के जवाब में मंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा ने सांसद मेहता को बताया कि रतिलाल का आवेदन निरस्त कर दिया गया है। आवेदन को खारिज करने की वजह ये बताई गयी थी कि रतिलाल ने पास प्लास्टिक प्रोसेसिंग का अनुभव नहीं है। आवेदन खारिज होने की वजह जानकर रतिलाल बहुत दुखी हुए। उन्होंने सांसद मेहता को ये बताया कि ये कहना गलत है उन्हें प्लास्टिक की दुनिया में काम करने का अनुभव नहीं है। रतिलाल ने सांसद को ये समझाने की कोशिश की कि उन्होंने प्लास्टिक के पीकर बनाने का काम किया और इस तरह का काम सिर्फ जापान, जर्मनी और अमेरिका में ही होता है। रतिलाल की दलीलें सुनने के बाद सांसद मेहता ने उनसे दिल्ली आने को कहा ताकि वे सीधे मंत्री बहुगुणा से उनकी बात करवा सकें। रतिलाल ट्रेन पर सवार होकर दिल्ली के लिए रवाना हुए। रतिलाल ने बताया कि ये उनकी पहली दिल्ली यात्रा थी और उन्होंने भावनगर से मीटर गेज वाली ट्रेन पकड़ी थी। उन दिनों भावनगर से दिल्ली के लिए ब्रॉडगेज वाली ट्रेन नहीं थी। भावनगर से दिल्ली पहुँचने में उन्हें दो दिन लगे थे और वे स्टेशन पर उतरकर सीधे रिटायरिंग रूम गए और वहीं फ्रेश होकर सांसद के घर के लिए रवाना हुए। रतिलाल को अपने साथ लेकर सांसद मेहता मंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा के यहाँ पहुंचे। जब सांसद मेहता ने रतिलाल का आवेदन खारिज होने की बात बताई तो मंत्री गुस्सा हो गए और कहा कि मैं आवेदन नहीं देखता। सांसद से मंत्री को समझाने की कोशिश की गलत आधार पर आवेदन रद्द किया गया है। इस बात पर मंत्री ने उन्हें एक चिट्ठी लिखकर सारी बात कहने को कहा। इसके बाद रतिलाल सांसद के साथ बाहर आ गए। इसे बाद रतिलाल भावनगर वापसी की तैयारी करने लगे। इसी बीच उन्हें अपने एक मित्र की याद आयी जोकि उत्तरप्रदेश में विधायक थे। ये विधायक भावनगर में उन्हें घर पर भी आये हुए थे। अपने विधायक मित्र से मिलने के लिए रतिलाल लखनऊ के लिए रवाना हुए। लखनऊ पहुँचने पर रतिलाल को पता चला कि उत्तरप्रदेश विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा और उनके विधायक मित्र लखनऊ में नहीं है। जब रतिलाल लखनऊ में थे तब उन्हें पता चला कि बाबू जगजीवन राम की एक सभा चल रही है। रतिलाल सभा में पहुँच गए और सभा के बाद बाबू जगजीवन राम से मिलकर उन्हें अपने आवेदन की एक कॉपी दी और मदद करने के आग्रह किया। बाबू जगजीवन राम ने रतिलाल को भरोसा दिया कि वे आईपीसीएल को चिट्टी लिखेंगे। बाबू जगजीवन राम उन दिनों बहुत बड़े नेता हुआ करते थे और केंद्र सरकार में बड़ी जिम्मेदारियां निभा रहे थे। दलित समुदाय से होने की वजह से बाबू जगजीवन राम को दलित अपना सबसे बड़ा नेता मानते थे। बाबू जगजीवन राम से मिलने के बाद रतिलाल ने अपने विधायक मित्र के यहाँ फ़ोन लगाया। पता चला कि विधायक मित्र इलाहाबाद में हैं। मित्र से मिलने रतिलाल लखनऊ से इलाहाबाद के लिए रवाना हुए। इलाहाबाद में उनकी अपने विधायक मित्र से मुलाक़ात भी हुई। विधायक मित्र ने बताया कि वे हेमवतीनंदन बहुगुणा की पत्नी कमला बहुगुणा को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं और वे उनकी हर मुमकिन मदद करेंगे। विधायक मित्र रतिलाल को साथ लेकर दिल्ली गए और उन्हें कमला बहुगुणा से मिलवाया। कमला बहुगुणा जोकि खुद उस समय सांसद थीं उन्होंने रतिलाल के पक्ष में अपने पति व् मंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा को सिफारिश पत्र लिखा। लेकिन इसी बीच मोरारजी देसाई की सरकार गिर गयी और चौधरी चरण सिंह देश के नए प्रधानमंत्री बने। इसी दौरान आईपीसीएल ने तीनों आवेदकों को दरकिनार करते हुई चौथी पार्टी – गुजरात सरकार की गुजरात स्मॉल इंडस्ट्रीज ट्रेडिंग कारपोरेशन को भावनगर की एजेंसी दे दी। लेकिन रतिलाल ने अपनी कोशिशें नहीं रोकीं। उन्होंने राज्यसभा सदस्य योगेन्द्र मकवाना की भी मदद ली। योगेन्द्र मकवाना आईपीसीएल के आईपी सेल के डायरेक्टर वेंकट सुब्रमण्यम को अच्छी तरह से जानते थे। योगेन्द्र मकवाना ने रतिलाल के मामले में सुब्रमण्यम से बात की। सुब्रमण्यम से साफ़-साफ़ शब्दों में कहा कि नयी सरकार के बनने तक वे कोई फैसला नहीं ले सकते हैं। लेकिन सुब्रमण्यम ने रतिलाल को एजेंसी न लेने कि और प्लास्टिक के बैग बनाने की फैक्ट्री शुरू करने की सलाह दी। केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से रतिलाल का काम करीब एक साल तक लंबित पड़ा रहा। रतिलाल ने सलाह नहीं मानी और एजेंसी पर ही अड़े रहे। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत हुई और इंदिरा गांधी दुबारा देश की प्रधानमंत्री बनीं। इंदिरा गांधी ने योगेन्द्र मकवाना को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री बनाया। योगेन्द्र मकवाना के मंत्री बनते ही रतिलाल ने उनसे फिर संपर्क किया। योगेन्द्र मकवाना ने बताया कि वे अगले दिन अहमदाबाद आ रहे हैं और उन्होंने रतिलाल से सुबह आकर मिलने को कहा। मिलने पर योगन्द्र मकवाना ने रतिलाल को बड़ौदा जाने और आई पी सेल के चेयरमैन वरदराजन को एक सन्देश देने को कहा। सन्देश था कि मंत्री योगेन्द्र मकवाना रात एक बजे वरदराजन को फ़ोन करेंगे और फ़ोन रिसीव करने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा। मंत्री योगेन्द्र मकवाना ने ऐसा इस वजह से किया क्योंकि वे वरदराजन के ये जताना चाहते थे कि रतिलाल उनके ख़ास आदमी हैं और वे उनके लिए रात 1 बजे भी जागकर काम कर सकते हैं। योगेन्द्र मकवाना को वरदराजन ने बताया कि रतिलाल को एंजेसी न देने का फैसला उनका नहीं बल्कि बोर्ड का था। ये बात सुनकर मंत्री योगेन्द्र मकवाना ने वरदराजन से कहा – आप राजनेता जैसी बात मत करो। इसके बाद रतिलाल ने बोर्ड के सदस्यों के बारे में पता लगाया। उन्हें जानकारी मिली कि बोर्ड में गुजरात सरकार के मुख्य सचिव और उद्योग सचिव भी शामिल हैं। यही जानकारी रतिलाल ने मंत्री योगेन्द्र मकवाना को दी। मंत्री के कहने पर बोर्ड की बैठक बुलाई गयी और रतिलाल के मामले को ‘स्पेशल केस’ मानते हुए उन्हें एजेंसी दी गयी। करीब दो साल की कड़ी मेहनत, जद्दोजहद के बाद रतिलाल को आईपीसीएल की एजेंसी मिली थी। रतिलाल की जिद के सामने सभी को झुकना पड़ा था।
रतिलाल को आईपीसीएल की एजेंसी मिलने पर बहुत खुशी हुई, ये उनके लिए बहुत बड़ी जीत थी। लेकिन, उनके लिए ये खुशी ज्यादा समय तक नहीं रही। उनके सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई। भावनगर में आईपीसीएल की दो एजेंसियां हो गईं थी। रतिलाल की एजेंसी के उद्घाटन समारोह का कईयों ने बहिष्कार किया। एक बार फिर रतिलाल जातिगत भेदभाव का शिकार हुए, लेकिन हमेशा की तरह ही उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और हार भी नहीं मानी। एक तरह के सामाजिक बहिष्कार के चलते रतिलाल को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। भावनगर के कुछ कारोबारियों ने आईपीसीएल के अफसरों रतिलाल की एजेंसी के उद्घाटन समारोह में आने से रोकने के लिए हरमुमकिन कोशिश की। उच्च जाति के इन कारोबारियों को ये अच्छा नहीं लग रहा था कि अब उन्हें प्लास्टिक की रस्सी बनाने के लिए कच्चा माल एक दलित से खरीदना पड़ेगा। लेकिन रतिलाल ने भी अपनी कारोबारी सूझबूझ का परिचय दिया और कीमत को कम कर कच्चा माल बेचा। कारोबारियों ने जब रस्सियाँ बनाने के लिए हाई डेंसिटी पालीएथिलीन के बजाय रतिलाल से लोडेंसिटी पालीएथिलीन लिया तब उन्हें अहसास हुआ कि इससे रस्सियाँ मज़बूत बन रही हैं और साथ ही उनका वजन भी हल्का है। धीरे-धीरे एक-एक करके कई कारोबारियों ने रतिलाल की एजेंसी से कच्चा माल खरीदना शुरू कर दिया। रतिलाल की एजेंसी ने भावनगर की प्लास्टिक इंडस्ट्री को रंग-ररूप ही बदलकर रख दिया। आईपीसीएल से मिलने वाले कच्चे माल से कारोबारियों ने पीवीसी चादर, टेप जैसी चीजें भी बनानी शुरू कीं। सैंकड़ो मजदूरों को रोज़गार मिला, जिनमें से ज़्यादातर दलित थे।
रतिलाल की कंपनी गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने बेहतरीन काम किया। दो-तीन साल के भीतर ही ये कंपनी शीर्ष 10 डिस्ट्रीब्यूटर्स की सूची में जगह बनाने में कामयाब हो गयी। 1986 में ये कंपनी देश की नंबर दो डिस्ट्रीब्यूटर बन गयी। 1988 में गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड को अहमदाबाद से पूरे गुजरात में माल बेचने की ज़िम्मेदारी मिली। ये सफ़र आसान नहीं थे, रतिलाल की दूरदर्शिता और कारोबारी सूझबूझ की वजह से ही उनकी कंपनी नया इतिहास लिखने में कामयाब हुई थी। गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड का मुनाफा लगातार बढ़ता चला गया। मुनाफे से उत्साहित रतिलाल ने नए सिरे से अपने कारोबार का विस्तार करने का मन बनाया। साल 1992 में रतिलाल ने रेनबो पैकेजिंग लिमिटेड को खरीद लिया। गुजरात के सानंद की ये कंपनी रतिलाल की एजेंसी से ही कच्चा माल खरीदकर पोलीथिन फिल्म बनाती थी। इस फिल्म का इस्तेमाल दूध की पैकेजिंग में होता है। 12 राज्यों की सरकारी डेयरी इस कंपनी की ग्राहक थीं। इस तरह से रतिलाल ने दूध के पैकेट बनाने का काम भी शुरू कर दिया।
साल 2002 में रतिलाल को करारा झटका लगा। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने सरकारी संस्थाओं/कंपनियों के विनिवेश का फैसला लिया। इस फैसले के दायरे में आईपीसीएल भी आ गयी। दूसरी सरकारी कंपनियों की तरह की आईपीसीएल के विनिवेश की प्रक्रिया भी शुरू हुई, कंपनी को बेचने के लिए निविदाएं आमंत्रित की गयीं। निविदाओं में बोली के आधार पर आईपीसीएल का एक हिस्सा रिलायंस ग्रुप का हो गया। नये प्रबंधन ने रतिलाल से डिस्ट्रीब्यूटरशिप वापस ले ली। रतिलाल ने अपनी डिस्ट्रीब्यूटरशिप बनाए रखने की खूब कोशिश की लेकिन वे नाकाम रहे। बातचीत के दौरान, रतिलाल ने कहा कि रिलायंस ग्रुप के अधिकारियों से बातचीत के उनके अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं।
वैसे तो, रतिलाल की कई खूबियाँ हैं। एक अच्छे उद्यमी के सारे गुण उनमें मौजूद हैं। उनकी के बड़ी खूबी ये भी है कि वे हमेशा कुछ नया करने की सोचते रहते हैं साथ ही जोखिम उठाने को भी हमेशा तैयार रहते हैं। अपने इसी स्वभाव के चलते रतिलाल ने अपने कारोबारी साम्राज्य को अफ्रीका तक फैलाया। साल 2007में रतिलाल ने अफ्रीका के युगांडा में शुगर मिल की शुरूआत की। रतिलाल बताते है कि अफ्रीका में शुगर मिल का काम भी संघर्षों से भरा था। अफ्रीका में शुगर इंडस्ट्री में मेहता और माधवानी नाम के दो उद्योगपतियों का कब्जा था। ये दोनों किसी अन्य कारोबारी को अपने क्षेत्र में जमने नहीं देते थे, लेकिन रतिलाल गुड़ बनाने के काम के जरिये इस क्षेत्र में घुस गये। बाद में जब रतिभाई ने शुगर का उत्पादन शुरू किया तो वे पहले से स्थापित दोनों कारोबारियों के निशाने पर आ गये। इन कारोबारियों ने हर तरह से रतिलाल को दबाने की कोशिश की और हर मुमकिन दबाव बनाया कि रतिलाल चीनी का कारोबार छोड़ दें। रतिभाई टस से मस नहीं हुए। रतिलाल ने इन दोनों कारोबारियों से निपटने के लिए अपने तौर-तरीकों से काम करना शुरू किया। अफ्रीका में शुगर मिल के इन मालिकों का गुजरात में भी कारोबार था, ऐसे में रतिलाल ने अपने राजनीतिक मित्रों की मदद ली। अफ्रीका में शुगर मिल चलाने वाले इन व्यापारियों को राजनेताओं के हवाले से ये समझाया गया कि वे रतिभाई के शुगर फैक्ट्री के मामले में अनुचित ढंग से रोड़े न अटकायें। रतिलाल की ये रणनीति भी कामयाब रही और रतिलाल न सिर्फ अफ्रीका में भी अपना कारोबार सफलता से चला रहे हैं, बल्कि उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी कर रहे हैं।
मौजूदा समय में रतिलाल के चारों बेटे – राजेश, गौतम, चिराग और मुकेश कारोबार चलाने में उनकी मदद कर रहे हैं। रतिलाल बताते हैं कि उनकी कंपनियों के समूह का सालाना कारोबार/ टर्नओवर 800 से 1000 करोड़ रुपये के बीच में है। रतिलाल ने पहले गेल इंडिया लिमिटेड और फिर बाद में इंडियन आयल से भी एजेंसी ली। दोनों एजेंसियां शानदार तरीके से काम कर रही हैं। रतिलाल को बड़ा मुनाफा दूध के पैकेट बनाने के कारोबार में हो रहा है। रतिलाल की एक कंपनी दूध की पकेजिंग में इस्तेमाल में लाये जाने वाले प्लास्टिक फिल्म बनाती है। रतिलाल विदेश से पेट्रोकेमिकल आयात कर भारत में उसे बेचते भी हैं। रतिलाल ने एक ख़ास रणनीति के तहत अपने कारोबार का अलग-अलग क्षेत्रों में विस्तार किया है और विस्तार के ये प्रक्रिया अब भी जारी है।
रतिलाल दलित चैम्बर ऑफ कॉमर्स की गुजरात शाखा के मुखिया भी हैं। ज्यादा से ज्यादा दलितों को कामयाब उद्यमी बनाने में भी वे अपनी ओर से कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं।उनकी अगुआई में दलित चैम्बर ऑफ कॉमर्स की गुजरात इकाई की ओर से दलित उद्यमियों के लिए नियमित रूप से कार्यशालाओं, प्रदर्शनियों और सेमिनारों का आयोजन किया जा रहा है। वे कहते हैं, “जो भेदभाव मैंने दलित होने के कारण झेला वैसा भेदभाव किसी और को न झेलना पड़े इसके लिये मैं अपनी ओर से कोशिश करता रहूँगा।”
एक सवाल के जवाब में रतिलाल ने बताया कि जब उन्होंने कारोबार की दुनिया में कदम रखा था तभी उन्होंने तय कर लिए था कि उन्हें खूब आगे बढ़ना है और नाम कमाना है। रतिलाल ने विदेश जाकर भी कारोबार करने की सोची थी और उसी वजह से 1965 में ही उन्होंने अपना पासपोर्ट बनवा लिया था। वे उस समय तो विदेश नहीं जा पाए थे लेकिन उन्होंने आगे चलकर विदेश में भी अपने कारोबारी साम्राज्य का विस्तार किया। रतिलाल ने माना कि वे शुरू से ही कारोबार को बढ़ाना चाहते थे, नयी-नयी मशीनें और तकनीकें भारत लाना चाहते थे, लेकिन उनके पास पूंजी नहीं थी और जातिगत भेदभाव के चलते उन्हें बैंक से लोन भी नहीं मिलता था। केंद्रीय मंत्री कृष्णमाचारी के कहने के बाद लोन मिलने से पहले रतिभाई और उनके पिता बाज़ार से ब्याज पर रकम लिया करते थे। इस रकम से वे पिकर बनाने के लिए ज़रूरी सामान का आयत करते थे। रतिभाई ने बातचीत के दौरान बताया कि यूनियन बैंक के एक मैनेजर और दरबार बैंक के एक मैनेजर ने भी उनकी मदद की थी। इन दो अफसरों के अलावा दूसरे सारे अफसरों ने कोई मदद नहीं की। रतिलाल इस बात का स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि वे एक दिन 1000 करोड़ रुपये के कारोबारी साम्राज्य के मालिक बनेंगे। वे कहते हैं, “मैंने जो कुछ भी हासिल किया है उससे बहुत खुश हूँ।मैं अब अपने समाज के लिए कुछ करना चाहता हूँ।” उनका मानना है कि जब तक दलितों को लेकर लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक देश में परिस्थितियों के बदलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वे कहते हैं कि जातिगत भेदभाव पहले से कम ज़रूर हुआ है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। गुजरात जैसे विकसित राज्य में भी दलितों का सामाजिक बहिष्कार और छूआछूत जारी है, ऐसे में पिछड़े राज्यों में क्या स्थिति है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
बड़ी बात ये भी है अपने कारोबार से लगाव की वजह से रतिलाल राजनीति के मैदान से दूर ही रहे। हालाँकि उन्हें राज्यसभा की सदस्यता का प्रस्ताव एक बार मिल चुका है लेकिन कारोबारी व्यस्तताओं के चलते उन्होंने राजनीति से दूर रहने का निर्णय लिया। इसके बाद भी रतिभाई मानते हैं कि राजनीति समाजसेवा का खासकर दलितों के उत्थान और उनकी मदद का एक बेहतर जरिया हो सकता है। इस बात में दो राय नहीं कि कारोबार करने के इच्छुक लोगों के लिए ही नहीं बल्कि सभी लोगों के लिए रतिलाल का जीवन प्रेरणादायी है। उनकी सलाह है कि लोगों को खासकर उद्यमियों को समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि पूरी हिम्मत और बुद्धि के साथ समस्या से निपटने का तरीका ढूंढना चाहिए और ऐसा करने से ही कामयाबी मिलती है। जहाँ समस्या है यहीं समस्या का निदान भी है, ज़रुरत है उस निदान को ढूंढ निकालने की।
ऐसा भी नहीं है कि रतिलाल को हर कारोबार में फायदा ही हुआ है। दो ऐसी घटनाएं/कारोबार हैं जहाँ रतिलाल के अनुभव मीठे और खुशनुमा नहीं रहे। 90 के दशक में रतिलाल ने शिप ब्रेकिंग के कारोबार में अपने हाथ आजमाए। उस दशक में अलंग नाम का बंदरगाह जहाजों को तोड़कर उसके कबाड़ का कारोबार करने का बड़ा केंद्र बनकर उभरा है। उन्हीं दिनोंडॉलर का भाव भी काफी ऊपर-नीचे हो रहा था और इसका सीधा असर शिप ब्रेकिंग पर पड़ने लगा। रतिलाल को भी घाटा हुआ और उन्हें लगा कि वे जितना ज्यादा समय इसमें लगाएंगे उतना ज्यादा घाटा होगा। इसी वजह से रतिलाल ने शिप ब्रेकिंग के कारोबार से अपने हाथ वापस खींच लिए।
रतिलाल ने 1994 में एक बड़ी पब्लिक लिमिटेड कंपनी शुरू की थी, महुआ में एक स्टील प्लांट भी खोला। स्टील प्लांट के लिए बैंक से 15 करोड़ रुपये का कर्ज भी लिया, लेकिन सारी राशि ओवररन हो गयी। रतिलाल के मुताबिक, उन्होंने अपने पार्टनर को स्टील प्लांट की सारी ज़िम्मेदारी सौंप दी थी। वे गुजरात में रहते थे और अपना गुजरात का कारोबार संभाल रहे थे। वे स्टील प्लांट पर सही तरह से ध्यान नहीं दे पाए थे। पार्टनर की गलतियों की वजह से स्टील प्लांट घाटे में चला गया और उसे बंद करना पड़ा। रतिलाल के मुताबिक, इस स्टील प्लांट से जो उन्हें घाटा हुआ उससे उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा और घाटे से उबरने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी थी। रतिलाल कहते हैं कि अगर वे घाटे से नहीं उभर पाते तो इसीसे उनके दूसरे कारोबार पर भी बुरा असर पड़ने के आसार थे। वे इस संकट को अपने कारोबारी जीवन का सबसे बड़ा संकट मानते हैं।
(रतिलाल मकवाना से हमारी ये ख़ास मुलाक़ात और अंतरंग बातचीत अहमदाबाद में गुजरात पिकर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड के मुख्यालय में हुई थी।)