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मन को आजादी चाहिए और आंखों को नींद

मन को आजादी चाहिए और आंखों को नींद

Monday August 14, 2017 , 5 min Read

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर इस तरह सोचते हुए कि मन को आजादी चाहिए और आंखों को नींद। नींद आने से पहले आंखों के आसपास कभी-कभी इतने तरह के सपने मंडराने लगते हैं कि बस, पूछिए मत। परिदृश्य में तिलचट्टों, छिपकलियों के झुंड। आर्त कोलाहल। मानो अपनेआप पिस रहा हो समय।

फोटो साभार: सोशल मीडिया

फोटो साभार: सोशल मीडिया


व्यक्तिगत जीवन में मन की आजादी का दिन सबको चाहिए, लेकिन मिलता कहा है। जीवन क्षण-क्षण कई रंग ओढ़ता-बिछाता है। अप्रिय होता है तो मन घिन से भर जाता है, आंखें आंसुओं से। कभी-कभी। किसी-किसी समय में अक्सर। गुस्से बगूलों में छा लेते हैं। हंसी ठूंठ हो जाती है। अंदर कुछ तेजी से टूटता है। तिलमिला उठता है। निःस्वर। जैसे अर्थवान कुछ भी न हो। एकदम जाना-पहचाना-सा भी। कविता, मनुष्य, संभावनाएं, सांसें आद‌ि। परिदृश्य में तिलचट्टों, छिपकलियों के झुंड। आर्त कोलाहल। अपनेआप पिस रहा है। समय। गिलहरी, खरगोश, तोते और बिल्लियां खूब रिझाती हैं। गाय-भैंस कुत्ते तो रोज-रोज के। कोई आदमी सोच रहा है, मानो बादल घिर जाने के बाद छिप कर बारिश की तान सुनना सीधा सा काम है। मन का अंधेरा भी पूरब की ओर से घिरा आता है। सुबह-सुबह।

स्वतंत्र मन के किसी सिरे से किलकारियां फूट रही हैं तो शिशुवत होगा अंदर कुछ-न-कुछ। अनबोले आंसुओं की तरह। गुस्साए बगूलों में। गांव-शहर पर लिखी गयीं किताबों के छोटे-छोटे वाक्यों की तरह। फूल हैं। नदी है। ग्लेश्यिरों पर गिरती ताजा-तिरछी किरणें भी। लेक‌िन अपने-अपने अंदर की अजनबीयत का क्या करे कोई। क्या कर सकता है! पीपल की पत्तियों से तेज नाचती हैं मक्खियां और भौकते हैं कुत्ते। देर रातों के सन्नाटें में। मक्खियां अंधेरे में नजर नहीं आती हैं। रोजाना सुबह होने तक। बासी दौड़ को कहते हैं कि मॉ‌र्निंग वॉक से धौकने लगता है मन। आंसू आते भी हैं तो हंसी-खुशी के। लोमड़ी-सुख के ल‌िए। जीवन भर की सलामती मयस्सर होने की इतनी सारी बेचैनियां भोर के सीने पर। बूढ़ी कुतिया उंकड़ू पड़ी है पान वाली दुकान से सटी सड़क के आधे होंठ पर। मैंने भी थूका है वहां कई बार।

पी लेने के बाद, ओस, पानी, मय, कुछ भी। उल्थी दिशाओं और रिश्तों के ढूह पर टपकतीं स्मृतियां सुस्ताना चाहती हैं। पीपल की पत्त‌ियों के तने जिस तरह नन्हे-नन्हे झोकों से मुड़-तुड़ लेते हैं। फुनगियां लरज जाती हैं। मन अपना लगने लगता है। और उसी क्षण कोई खंगालने-टकटोरने के ल‌िए उद्धत हो जाता है। सांप भी उतना तेज नहीं फुंफकारता है। फिर अकेला हो जाता है मन, स्वतंत्र। दीवारों के पीछे किसी पड़ोसी का बच्चा टॉफी के ल‌िए जोर-जोर से रो रहा है। श्रीकांत मिस्त्री आज कल आदमी की आजादी के दर्द पर कोई क‌िताब लिख रहे हैं। क‌िसी बड़े प्रकाशक से बातचीत हो चुकी है। फिर फरवरी में लग सकता है विश्व पुस्तक मेला।

आजाद वक्त में, देश-काल में, अभिज्ञान शाकुंतलम् पढ़ते समय नल-दमयंती की मुद्रा में दो-चार श्लोक अनायास कंठस्थ हो जाते हैं। जैसे गांव का बिरहा, कजरी, धोबीगीत आद‌ि। कव्वाली नहीं। उचाट मन को तद्भव लगता है। गंदी-गंदी डकार आती है। किसी को भी। ऊपर से कुमार संभव बातें शिव के सत्य से घसीट कर फेक देती हैं। फच्च्। अब बरसातों में मेढक पहले की तरह नहीं टर्राते हैं। और झींगुर भी। मछलियां निरछल होती हैं। बाहर जैसी। कपटी बगुले तटों पर तिरते रहते हैं। सांप-बिच्छू पर लिखे गये सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् के गीत पढ़ते-पढ़ते मछलियां सो जाती हैं सतह पर और मेघ खाली हो जाते हैं तब तक। ये उनकी स्वतंत्रता का प्रश्न होता है। आसपास के पेड़ों पर दुबके पंछियों के झुंड सुबह होने के बाद ही चहचहाते हैं। तब तक आती रहती है नींद।

नानी की कहावतें और नाना के भजन न सुनते-भजते हुए एक दिन दोपहर को मौसम जिरह करता है चीख-चीख कर कि किसका सत्य, कितना है। यानी कितना-कितना है! कि नहीं है! शून्य-भर भी। ऐसा तो नहीं होना चाह‌िए। न‌िरर्थक शब्दों और चर्चाओं की तरह। गर्हित संबंधों और अविश्वसनीय अंध आस्थाओं की धुन में। ढोया जा सकता है किसी को भी। मन पर नहीं। चित्त प्रसन्न होना चाहिए।

नींद आने से पहले आंखों के आसपास कभी-कभी इतने तरह के सपने मंडराने लगते हैं कि बस, पूछिए मत। नानी को सुनते-सुनते नींद आ जाती थी बचपन में। नाना आजाद हिंद फौज में रहे थे तो बुढ़ापे की बिना पर न तब कुछ रहा था उनके पास, न अंतिम समय रहते देखा है उनके साथ। कहते थे, रंगून में जापानी बम बरसते समय एक टांग खाईं के ऊपर उठी रह गयी थी। धुंआ-सुंआ में जैसे कि राम-रावण युद्ध होता रहा होगा कभी। बमबारी खत्म होने के बाद लौट आए थे पैदल रंगून से कलकत्ता तक। सुभाषचंद बोस को कहां पता रहा होगा। नाना को कभी डर नहीं लगता था। नानी डरती क्यों थी नाना से।

ठेके के सामने दूसरी ओर की फुटपाथ पर उस दिन एटीएम के सामने कतार में मैं भी खड़ा था। अपनी बारी दूर थी आधा घंटा। नजर गयी एक रिक्शे वाले पर। अक्सर चली जाती है उस पर इधर से आते-जाते। उसका एक हाथ पिछले साल हादसे में कंधे से अलग हो गया था। एक हाथ से चलाता है रिक्शा। धीरे-धीरे। कटे कूल्हे पर गमछा डाले रहता है। यहां अक्सर यूं ही नजर नहीं आता। घूंट-घूंट बस होने के लिए। ऐसे में मन करता है क्षण भर के ल‌िए, पलक झपकते कि आइए इलिट क्लास हो लेते हैं, उड़ आते हैं कहीं, एयर बस से, सिर्फ वह वाला मिनरल वाटर पीने के लिए। ये तो पीता रहेगा यहां आए दिन। और इसके जैसे। खरामा-खरामा खींचता होगा रोजाना। रिक्शा। एक-दो गटक में पूरी कमाई उड़ेल लेना अंदर। आजाद होने के लिए इतना विषाक्त मन। अब और किस तरह से जिया जा सकता है ऐसे में। सबके हिस्से की घुटन को। 

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