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“रईस” तो बस एक बहाना है, एक समुदाय विशेष सांप्रदायिक नेताओं का निशाना है : आशुतोष

पूर्व संपादक/पत्रकार आशुतोष का अभिमत - रचनात्मक्ता निंदा का ज़रिया नहीं बननी चाहिए 

“रईस” तो बस एक बहाना है, एक समुदाय विशेष सांप्रदायिक नेताओं का निशाना है : आशुतोष

Sunday January 29, 2017 , 8 min Read

आखिर इसे क्या कहा जाए ? एक सांप्रदायिक नेता की अशोभनीय टिप्पणी या अवांछित व्यक्ति का मजाक या फिर एक दक़ियानूसी विचारधारा की हुंकार ? दो फिल्मों की तुलना करना कोई नई बात नहीं है, बल्कि ये तो समीक्षकों का रचनात्मक आउटलेट है जो फिल्मों के ब्रह्मांड को समझने में मदद करते हुए दर्शकों के लिए नए दरवाजे खोलता है. ये एक ऐसा अभ्यास है जो नए रचनात्मक क्षेत्र को बनाता है. ये नई ऊर्जा को अस्तित्व में लाता है जो व्यक्ति को चेतना के एक नए स्तर पर ले जाता है. दुर्भाग्यवश हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जहां रचनात्मक्ता निंदा का जरिया बन गई है. हम डोनाल्ड ट्रंप के समय और “पोस्ट फ़ैक्ट” दुनिया में जी रहे हैं. हम नए समय में जी रहे हैं. ऐसे में मुझे कैलाश विजयवर्गीय की अभद्र अभिव्यक्ति पर जरा भी हैरानी नहीं हुई. वे लोगों को शाहरुख खान पर फिल्माई गई फिल्म ‘रईस’ से दूर रहने के लिए उकसाते हैं, तो वहीं वो ऋतिक रोशन की फिल्म ‘काबिल’ की प्रशंसा भी करते हैं.

बाहरी तौर पर देखने पर इस सब में कोई हानि नहीं दिखती. ये उनके किसी विशेष प्रकार की फिल्म को लेकर उनकी पसंद-नापसंद की अभिव्यक्ति लगती है. लेकिन कैलाश विजयवर्गीय का ट्वीट इतना आसान नहीं है. एक बार फिर पढ़िए कि उन्होंने क्या लिखा है- "जो "रईस" देश का नहीं, वो किसी काम का नहीं. और एक "क़ाबिल" देशभक्त का साथ, तो हम सभी को देना ही चाहिये." कैलाश विजयवर्गीय कोई आम शख्स नहीं हैं. वो भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं. उन्हें विवादास्पद सुर्खियों में बनें रहना पसंद है और जो वो बड़े अभिमान के साथ करते हैं. उन्हें कई बार अपनी ही पार्टी की ओर से इस तरह के बयानों को लेकर लताड़ पड़ चुकी हैं, फिर भी वो हर बार किसी नए विवादित बयान के साथ वापस आ जाते हैं. लेकिन उनका विषय हमेशा समान होता है. ये टिप्पणियाँ बेशर्म, सांप्रदायिक, नफरत से भरपूर, बेस्वाद होती हैं जो एक विशेष समुदाय को निशाना बनाती हैं.

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‘रईस’ एक बायोपिक है. ये फिल्म एक डॉन के बारे में है, जिसका किरदार शाहरुख खान ने निभाया है. काबिल एक नेत्रहीन दंपति के प्यार और बदले की कहानी है, जिसमें ऋतिक लीड रोल में हैं. इन दोनों ही फिल्मों की रिलीज की तारीख 25 जनवरी थी. ये एक संयोग की बात भी हो सकती है, लेकिन इसे या फिर एक-दूसरे की फिल्म को लेकर शाहरुख या फिर ऋतिक की ओर से ऐसा कोई बयान सामने नहीं दिया गया, जो विवाद खड़ा कर सकता था और जिसे मार्केटिंग रणनीति मान लिया जाता. इसके उलट दोनों ही एक्टर एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और सार्वजिनक तौर पर भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखते हैं. ऐसे में इस बात का सवाल ही नहीं उठता कि ट्विटर को दोनों फिल्मों के बारे में सुर्खियां बनाने और ‘रईस’ को नुकसान पहुंचाने के लिए इस्तेमाल किया गया हो. मुझे नहीं लगता कि ऋतिक रोशन इस तरह के शख्स हैं जो इस तरह की हरकत करें. ये कैलाश विजयवर्गीय की अपनी खुद की उपज है. वो एक ऐसी राजनीतिक प्रष्टभूमि से आते हैं जो अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ पक्षपात रखती है. आरएसस और बीजेपी खुले तौर पर एक ऐसे हिंदू राष्ट्र का समर्थन करते हैं जहां अल्पसंख्यकों के पास दूसरे दर्जे की नागरिकता होगी. असल में उनके पुराने नेता और बौद्धिक, अल्पसंख्यकों को नागरिकता का हक ही नहीं दिया जाना चाहियें, ये तक इशारा कर चुके है. सैद्धांतिक सोच के अनुसार आरएसएस और बीजेपी भारत के विभाजन के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार मानती है । उनका मानना है कि मध्यकालीन इतिहास में जो परेशानियां हुई थी उसके लिए भी मुसलमान ही कसूरवार थे. उनके हिसाब से राजनीति सभ्यताओं का संघर्ष है.

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भारतीय संदर्भ में, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ ने विवेचना की है कि भारतीय सभ्यता में गिरावट तब आई जब मुसलमानों ने पहली सहस्त्राब्दी के अंत में दक्षिण एशिया में प्रवेश किया. आरएसएस के हिसाब से भारतीय इतिहास अनिवार्य रुप से “हिन्दू इतिहास” है, मुसलमान और ईसाइ विदेशी है..आरएसएस की इस धारणा के आदर्श पुरूष वीर सावरकर हैं जिनका मानना था कि। असली भारतीय वही लोग है जो भारत को ही अपनी मातृभूमि और पवित्र भूमि, दोनों समझते हैं. सावरकर का मानना था कि मुसलमान और ईसाईयों के धर्मस्थल अलग भूमि पर हैं इसीलिए उनकी हमारे देश के प्रति इमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा. इन्हीं मूल कारणों की वजह से आरएसएस अल्पसंख्यकों के प्रति इतनी घृणा रखती है

आधुनिकीकरण, धर्म निरपेक्षता और शहरीकरण के कारण अल्पसंख्यकों के प्रति भारतीय विचारधारा में हुए बदलावों के बावजूद भी वे लोग वक्त के उस जाल में फंसे हुए हैं, और सोच के उस दायरे से बाहर आना ही नहीं चाहते...इसी सोच का प्रभाव है कि स्वंय सेवक संघ और बीजेपी नेताओं का आज भी साम्प्रदायिकता को लेकर गुस्सा फूटता है .कैलाश विजयवर्गीयने जो किया और कहा है वह कोई नया नहीं है, वही पुराना घिसा पिटा प्रयास है. विजयवर्गीय ने किसी फिल्म को टारगेट नहीं किया, बल्कि उनका टारगेट शाहरुख़ खान है . शाहरुख़ पर यह वार उनकी धार्मिक पहचान के कारण हो रहा है क्योंकि उन्होंने उस गैंगस्टर का किरदार निभाया है जो शाहरुख़ के ही धर्म का है..शाहरुख को टारगेट करना कैलाश और उनके समर्थकों के लिए वरदान साबित हो गया है

ऋतिक रोशन को एक अन्य अभिनेता के तौर पर नहीं बल्कि ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जा रहा है जो भिन्न धर्म का है , और उनकी सोच के मुताबिक जिसका टकराव ऐतिहासिक रूप से शाहरुख़ की पहचान से है. इस किस्से की असभ्यता ने हमारी फिल्म इंडस्ट्री के दो महान अभिनेताओं– शाहरुख़ और ऋतिक की प्रतिभाओं को नकार कर उनकी मूल पहचान तक सीमित कर दिया है, जो दुर्भाग्य भी है और ऐतिहासिक रूप से गलत भी है. कैलाश विजयवर्गीय की नज़र में, ‘रईस’ और ‘काबिल’ दो फिल्में नहीं हैं बल्कि दो सभ्यताओं का अपना वर्चस्व स्थापित करने का संघर्ष है.

दक्षिण एशिया में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का दौर अब तक का सबसे उदार समय रहा है. उसने कभी धर्म और जाति के नाम पर पक्षपात नहीं किया. उसने सिर्फ प्रतिभाओं को प्रोत्साहित और सफल किया है. सफलता और असफलता के मापदंड तय करने के लिए कभी भी धर्म और जाति का सहारा नहीं लिया गया. यदि राज कपूर और देव आनद ५० के दशक के सुपर स्टार रहे हैं तो दिलीप कुमार उर्फ़ युसूफ खान भी अपने दौर के शीर्ष अभिनेता रहे हैं. अगर ७० और ८० के दशक में अमिताभ बच्चन ने स्टारडम को नई परिभाषा दी है तो वे नसीरुद्दीन शाह थे जो “नई सिनेमा” की नई रौशनी बनकर उभरे थे और दोनों को ही भारतीय दर्शकों ने स्वीकार किया है.

भारतीय सिनेमा की धर्मनिरपेक्षता में ९० के दशक ने एक नया अध्याय लिखा जब सांप्रदायिक राजनीती उभार पर थी , राममंदिर आन्दोलन अपने शीर्ष पर था और बीजेपी बहुत आक्रामक थी, खान बंधुओं ने बॉलीवुड पर इस तरह अपना वर्चस्व कायम कर लिया था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था. आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख़ खान, सैफ अली खान और अब इरफ़ान खान, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी राजाओं की तरह शासन कर रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ऋतिक, अक्षय कुमार, अमिताभ, अजय देवगन भी बेहद सफल रहे हैं लेकिन उनका खान बंधुओं से कोई मुकाबला नहीं है. ५० की उम्र में भी आमिर , सलमान और शाहरुख़ को उनके फैन्स से बेहद प्यार मिल रहा है. और उनके साथ काम करना किसी भी निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री का सपना रहा है.

एक वक्त था जब मीडिया के एक हिस्से तथा राईटिस्ट समूहों ने ऋतिक रोशन को उनका नजदीकी प्रतिस्पर्धी करार दिया था. कुछ प्रमुख मेग्ज़िन्स में कवर स्टोरीज भी प्रकाशित की गयी लेकिन उनका कोई असर नहीं हुआ. उन सभी खान बंधुओं ने हिन्दू महिलाओं से विवाह किया था, इसीलिए लव जिहाद की गाडी को भी उनसे जोड़ा गया था. हर अवसर का उपयोग उन्हें देशद्रोही या कम देशभक्त साबित करने के लिए किया गया. शाहरुख़ की फिल्म ‘माय नेम इज खान’ को टारगेट बनाया गया और आमिर का वक्तव्य, कि ‘उनकी पत्नी भारत से बाहर जाना चाहती है’ को बेवजह तूल देकर सांप्रदायिक बना दिया गया . देश के प्रति उनकी वफादारी पर शक करने का कोई मौका चूका नहीं गया. “रईस” तो बस एक बहाना है, यह शाहरुख़ की देशभक्ति पर सवाल उठाने का एक जरिया है और उनके द्वारा उनकी पूरी कम्युनिटी की देशभक्ति को भी निशाना बनाया गया है. यह भी दिखाया गया है कि बहुसंख्यक कभी देशद्रोही नहीं होते, केवल अन्य जातियां ही होती हैं. यह एक बेहद खतरनाक बात है. लेकिन पिछले दो –ढाई वर्षों से, इस तरह की मिसालें देकर एक विशेष सम्प्रदाय को हाशिये में रखा जा रहा है. यह देश को बनाने की प्रक्रिया में कभी भी मदद नहीं करेगा. यह केवल बर्बादी को न्योता देगा.