बाबासाहेब पुण्यतिथि: आंबेडकर को यह ऊंचा कद पाने के लिए गांधी-नेहरू से सौ गुना ज्यादा श्रम करना पड़ा
आंबेडकर कोअपनी किताबें छपवाने के लिए दर-दर भटकना पड़ा था. उन्हें गांधी, नेहरू और कांग्रेस के अन्य कुलीन नेताओं की तरह राजकीय संरक्षण नहीं हासिल हुआ.
30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई और उसके दस वर्ष बाद 1958 में गांधी के चुनिंदा लेखों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ. यह संग्रह भारत सरकार की ओर से प्रकाशित किया गया था. फिर 1994 में गांधी के संपूर्ण रचनाकर्म को एक जगह संकलित कर प्रकाशित किया गया. यह काम 100 खंडों में प्रकाशित हुआ और प्रकाशन से लेकर वितरण तक का जिम्मा उठाया भारत सरकार ने.
इसी तरह जब 1964 में जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ तो उसकी संपूर्ण कृतियों (उन्होंने किताबों, लेखक, संस्मरणों, चिट्ठियों आदि के रूप में जो कुछ भी लिखा था) को संरक्षित करने, प्रकाशित करने के लिए नेहरू मेमोरियल म्यूजियम की स्थापना की गई. इस म्यूजियम न न सिर्फ नेहरू, गांधी बल्कि आजादी की लड़ाई से जुड़े तमाम पुरोधाओं के रचना कर्म को संरक्षित करने, प्रकाशित करने और उसका प्रचार-प्रसार करने का जिम्मा उठाया.
लेनिक इन तमाम महान लोगों की सूची में से एक नाम नदारद था.
भारत के संविधान निर्माता, महान लेखक, विचारक, सामाजिक बदलाव के महानायक, दलितों, स्त्रियों, वंचितों और कमजोरों के नेता बी.आर. आंबेडकर का.
आंबेडकर का बहुत सारा लेखन लंबे समय तक लोगों तक पहुंच ही नहीं सका क्योंकि उनकी मृत्यु के बाद किसी सरकारी और गैरसरकारी संस्था को उसके संरक्षण और प्रचार-प्रसार की जरूरत महसूस नहीं हुई.
लंबे समय तक उनका लिखा हुआ महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग की किसी पुरानी आलमारी में पड़ा धूल खाता रहा. पिछले एक-डेढ़ दशक में उस लेखन को क्रमवार व्यवस्थित करके छापे जाने का सिलसिला शुरू हुआ है. अब तक 22 खंड छप चुके हैं. लेकिन जितना हम तक पहुंचा है, उससे कहीं ज्यादा नहीं भी पहुंचा है. कितनी सारी चीजें तो शायद समय के साथ गुम भी हो गई होंगी, जिसका हमें भान भी नहीं है.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आंबेडकर लगातार लेखन कार्य में लगे हुए थे. लंदन से लेकर हिंदुस्तान की सुदूर लाइब्रेरियों तक से उन्होंने सैकड़ों किताबें जुटाई थीं, जिसे वे दिन-रात पढ़ते रहते थे. किताबों के प्रति उनकी दीवानगी का कई लोगों ने अपने संस्मरणों में जिक्र किया है. जॉन गुंथेर अपनी किताब 'इनसाइड एशिया' में लिखते हैं कि 1938 में जब आंबेडकर से मेरी मुलाक़ात हुई थी तो उनके पास आठ हज़ार से ज्यादा क़िताबें थीं. जब उनकी मृत्यु हुई तो इन किताबों की संख्या बढ़कर पैंतीस हजार हो चुकी थी.
शंकरानंद शास्त्री ने आंबेडकर के साथ अपने संस्मरणों की एक किताब लिखी है. नाम है- 'माई एक्सपीरिएंसेज एंड मेमोरीज ऑफ डॉक्टर बाबा साहेब आंबेडकर.' इस किताब में वे लिखते हैं कि एक दिन वो आंबेडकर से मिलने उनके घर गए. दोपहर के एक बज रहे थे. ये 1944 की बात है. आंबेडकर ने कहा कि मैं जामा मस्जिद जा रहा हूं किताबें खरीदने. आप भी मेरे साथ चलिए. वो भी उनके साथ हो लिए. वहां काफी देर हो गई. खाने का समय हो गया था, लेकिन आंबेडकर खाना-वाना सब भूलकर सिर्फ किताबें खरीदने में लगे हुए थे. उस दिन वो वहां से दो दर्जन किताबें खरीदकर लौटे.
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आंबेडकर की मृत्यु के बाद प्रकाशित उनकी ये चार किताबें ‘बुद्धा एंड कार्ल मार्क्स’, ‘बुद्धा एंड हिज धम्म्’, ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ और ‘रेवोल्यूशन एंड काउंटर रेवोल्यूशन इन एन्शिएंट इंडिया’ के नाम से प्रकाशित हुईं.
हालांकि ‘बुद्धा एंड हिज धम्म्’ की पांडुलिपि उनके जीवन काल में ही तैयार हो गई थी. वो चाहते थे कि यह किताब उनकी आंखों के सामने छपे, जिसके लिए उन्होंने बहुत कोशिश भी की.
सात साल के अनथक श्रम के बाद किताब की पांडुलिपि तैयार हो गई. अब छपवाने की बारी थी. किताब छपने में कम से कम 2,000 रुपए का खर्च था. इतने पैसे उनके पास थे नहीं. सो उन्होंने किताब छापने के लिए दोराबजी ट्रस्ट को चिट्ठी लिखी और उनसे अनुरोध किया कि इस महत्वपूर्ण किताब के प्रकाशन का जिम्मा वो उठा लें.
आंबेडकर ने टाटा इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मसानी को कई खत लिखे. हर बार गोलमोल जवाब आए. वे न किताब को छाप रहे थे, न ही छापने से इनकार कर रहे थे. आखिरकार एक चिट्ठी में आंबेडकर ने बहुत खुलकर कह दिया कि “आप साफ इनकार कर दें तो मैं अपना कटोरा लेकर किसी दूसरे दरवाजे पर जाऊं.”
इस बार लौटती डाक से जो मसानी का जवाब आया, उसमें लिखा था कि वे किताब छापने में तो असमर्थ हैं, बशर्ते इसके लिए आर्थिक सहायता जरूर दे सकते हैं. कुछ दिन बाद आंबेडकर के पते पर उनके नाम तीन हजार रुपए का एक चेक आ गया.
आंबेडकर इस किताब को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास भी गए थे. उस साल महात्मा बुद्ध की 25वीं जन्मशताब्दी थी. सरकार इस अवसर पर बहुत सारे आयोजन कर रही थी. एक कमेटी का भी गठन किया गया था और इस काम के लिए खास बजट भी आवंटित हुआ था. आंबेडकर ने नेहरू से कहा कि वे ‘बुद्धा एंड हिज धम्म’ की 500 प्रतियां खरीद लें. इस किताब को देश भर के पुस्तकालयों में भेजा जाए, जिससे किताब का प्रसार हो.
लेकिन नेहरू ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. नेहरू ने आंबेडकर को एक खत में लिखा, “हमने गौतम बुद्ध की जन्मशताब्दी पर प्रकाशित करने के लिए एक सुनिश्चित राशि का ही आवंटन किया है. वह राशि तो खर्च हो चुकी है. अब उससे ज्यादा खर्च नहीं किया जा सकता.”
एक साल बाद पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी (पीईएस) ने आंबेडकर की उस किताब का प्रकाशन किया. यह वही सोसायटी थी, जो 1954 में खुद आंबेडकर ने बनाई थी.