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इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले: परवीन शाकिर

इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले: परवीन शाकिर

Friday November 24, 2017 , 6 min Read

 परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं। परवीन शाकिर की शायरी, खुशबू के सफ़र की शायरी है। प्रेम की उत्कट चाह में भटकती हुई, वह तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी आस्था समाप्त नहीं होती। 

परवीन शाकिर (फोटो साभार- रेख्ता फाउंडेशन)

परवीन शाकिर (फोटो साभार- रेख्ता फाउंडेशन)


"ज़िंदगी के विभिन्न मोड़ों को उन्होंने एक क्रम देने की कोशिश की। उनकी कविताओं में एक लड़की के ‘पत्नी,’ माँ और अंतत: एक स्त्री तक के सफ़र को साफ़ देखा जा सकता है।" 

 इस मशहूर शायरा के बारे में कहा जाता है, कि जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सुपीरयर सर्विस की लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था, जिसे देखकर वह आत्मविभोर हो उठी थीं।

बहुत कम उम्र में दुनिया से चली गईं दुनिया की मशहूर शायरा सैयदा परवीन शाकिर का आज जन्मदिन है। परवीन शाकिर का जन्म पाकिस्तान के कराची में 24 नवंबर 1952 को हुआ। उर्दू शायरी में उनके लफ्ज एक युग का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह शुरू के दिनो में शुरू में बीना के नाम से लिखा करती थीं। 26 दिसंबर 1984 जो जब वह अपनी कार से दफ़्तर जा रही थीं, इस्लामाबाद की सड़क पर एक बस की टक्कर से उनकी जान चली गई। उन दिनो उनके पति से रिश्ते ठीक नहीं थे। हादसे के बाद रिश्ते पर भी तब तमाम खयालात हवा में तैरे थे।

उनका निकाह डाक्टर नसिर अहमद से हुआ था लेकिन परवीन की दुखद मौत से कुछ दिनों पहले हीं उन दोनों का तलाक हो गया। वर्ष 1977 में प्रकाशित अपने पहले संकलन में उन्होंने लिखा था कि जब हौले से चलती हुई हवा ने फूल को चूमा था तो ख़ुशबू पैदा हुई। फ़हमीदा रियाज़ कहती हैं- 'परवीन शाकिर के शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी और नज़ाकत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम है।'

रेहान फ़ज़ल लिखते हैं- 'ज़िंदगी के विभिन्न मोड़ों को उन्होंने एक क्रम देने की कोशिश की। उनकी कविताओं में एक लड़की के ‘पत्नी,’ माँ और अंतत: एक स्त्री तक के सफ़र को साफ़ देखा जा सकता है। वह एक पत्नी के साथ माँ भी हैं, कवयित्री भी और रोज़ी कमाने वाली भी। उन्होंने वैवाहिक प्रेम के जितने आयामों को छुआ, उतना कोई कवि चाह कर भी नहीं कर पाया। उन्होंने यौन नज़दीकियों, गर्भावस्था, प्रसव, बेवफ़ाई, वियोग और तलाक जैसे विषयों को छुआ, जिसपर उनके समकालीन कवि-शायरों की नज़र कम ही गई।' वह भारत समेत पूरी दुनिया के कवि-शायरों की पसंदीदा सृजनधर्मी थीं-

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले

रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले

रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था

वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले

वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा

इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले

इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे

वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले

धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे

शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले

परवीन शाकिर "खुशबू" ने उन्हें "अदमजी" पुरस्कार दिलवाया। आगे जाकर उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च पुरस्कार "प्राईड ऑफ परफ़ोरमेंस" से भी नवाज़ा गया। पहले-पहल परवीन "बीना" के छद्म नाम से लिखा करती थीं। वे "अहमद नदीम क़ासमी" को अपना उस्ताद मानती थीं और उन्हें "अम्मुजान" कहकर पुकारती थीं। परवीन की शायरी अपने-आप में एक मिसाल है। की शायरी में प्रेम का सूफियाना रूप नहीं मिलता वह अलौकिक कुछ नहीं है जो भी इसी दुनिया का है। जिस तरह इब्ने इंशा को चाँद बहुत प्यारा है उसी तरह परवीन शाकिर को भीगा हुआ जंगल।

जिस दिन परवीन शाकिर को कब्रस्तान में दफ़नाया गया, उस रात बारिश भी बहुत हुई, लगा आसमान भी रो पड़ा हो। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी, इंकार, माह-ए-तमाम आदि। इस मशहूर शायरा के बारे में कहा जाता है, कि जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सुपीरयर सर्विस की लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था, जिसे देखकर वह आत्मविभोर हो उठी थीं। उनके शब्दों का जादू किसी भी नग्मानिगार के सर चढ़कर बोलने लगता है-

शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकले

रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले

रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था

वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले

वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा

इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले

इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे

वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले

धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे

शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले

अपनी पुस्तक 'खुली आँखों में सपना' में सुरेश कुमार लिखते हैं कि परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं। परवीन शाकिर की शायरी, खुशबू के सफ़र की शायरी है। प्रेम की उत्कट चाह में भटकती हुई, वह तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी आस्था समाप्त नहीं होती। जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए, वह अपने धैर्य का परीक्षण भी करती है। प्रेम और सौंदर्य के विभिन्न पक्षों से सुगन्धित परवीन शाकिर की शायरी हमारे दौर की इमारत में बने हुए बेबसी और विसंगतियों के दरीचों में भी अक्सर प्रवेश कर जाती है।

परवीन की मौत के बाद उनकी याद में एक 'क़िता-ए-तारीख' की तख्लीक की गई थी- सुर्ख फूलों से ढकी तुरबत-ए-परवीन है आज, जिसके लहजे से हर इक सिम्त है फैली खुशबू, फ़िक्र-ए-तारीख-ए-अजल पर यह कहा हातिफ़ ने, फूल! कह दो है यही बाग-ए-अदब की खुशबू। उनके पास अंग्रेजी साहित्य, लिग्विंसटिक्स एवं बैंक एडमिनिस्ट्रेशन की तीन-तीन स्नातकोत्तर डिग्रियाँ थीं। वह नौ वर्ष तक अध्यापन के पेशे में रहीं। बाद में प्रशासक बन गईं। उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च पुरस्कार 'प्राईड ऑफ परफ़ोरमेंश' से समादृत किया गया। कम ही शायरा ऐसी हुईं हैं, जिनके लफ्जों में इस कदर एक साथ इतनी टीस और इतना उन्माद हुआ करे-

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी

मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी

सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों

मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी

बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा

मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये

मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी

वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन

मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी

बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद

वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी

अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ

मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी

जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का

वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी

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