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सौ दिव्यांगों का भविष्य बना रहे नई शिक्षा नीति बनाने वाले दिव्यांग श्रीधर

सौ दिव्यांगों का भविष्य बना रहे नई शिक्षा नीति बनाने वाले दिव्यांग श्रीधर

Tuesday December 31, 2019 , 4 min Read

भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने वाले प्रोफेसर एमके श्रीधर ने खुद की दिव्यांगता को तो आड़े नहीं ही आने दिया, सौ दिव्यांग बच्चों का भविष्य संवारने के लिए उनका सारा खर्च खुद उठाते हैं। प्रोफेसर एमके श्रीधर जैसे लोग ही देश-दुनिया के लिए मिसाल बन जाते हैं और आम लोगों के लिए एक बड़ी प्रेरक शख्सियत भी।


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प्रोफेसर एमके श्रीधर (फोटो साभार: सोशल मीडिया)


वर्ष 2017 में जब महाराणाप्रताप खेलगांव में पैरा स्विमिंग प्रतियोगिता के दौरान दिव्यांग युवा रजनी जैसी हिम्मतवर खिलाड़ी अपना शानदार प्रदर्शन कर रही थीं तो उनके समेत अन्य दिव्यांग प्रतिस्पर्धियों को देखकर लोग बरबस कह उठे थे कि ये स्वीमिंग पुल में ये तो तैराक नहीं, बल्कि बेमिसाल हौसले तैर रहे हैं।


उस समय प्रत्यक्षदर्शियों की आंखें फटी की फटी रह गई थीं। इसी तरह लखनऊ की दिव्यांग लड़की रंजना की भी बातें होती रहती हैं, जिसने अपनी तमाम मुश्किलों पर पार पाते हुए हजारों महिलाओं को आत्मनिर्भर बना कर दुनिया के सामने मिसाल पेश की है।


एक ऐसी ही शख्सियत हैं देश की नई शिक्षा नीति के को-ऑर्डिनेटर प्रोफेसर एमके श्रीधर, जो फिजिकली लगभग अस्सी फीसदी दिव्यांग होने के बावजूद एक सौ जरूरतमंद बच्चों का स्वयं खर्च उठा रहे हैं। जिस वक़्त उनको नई शिक्षा नीति के को-ऑर्डिनेशन की जिम्मेदारी मिली, हर दो महीने में एक बार सभी सदस्यों से मुलाकात करनी पड़ती, रोजाना लगभग पचास मीटिंग्स होतीं, जिनमें कम से कम चालीस लोगों से बातचीत करनी पड़ती। उनको नई शिक्षा नीति पर लगभग चार लाख लोगों के सुझाव पढ़ने को मिले। घंटो-घंटो अपनी जिम्मेदारी, नीतिगत मैटीरियल की पढ़ाई में व्यस्त रहने लगा, फिर भी कभी असफलता को अपने आसपास फटकने नहीं दिया।





प्रोफेसर एमके श्रीधर जैसे लोग ही देश-दुनिया के लिए मिसाल बन सकते हैं और आम लोगों के लिए एक बड़ी प्रेरक शख्सियत भी। दुनिया में कई लोग छोटी सी विफलता से हार मान लेते हैं तो कुछ लोग उसे चैलेंज की तरह हालात को पछाड़ देते हैं। आंध्र प्रदेश के हिन्दुपुर में जन्मे 65 वर्षीय एमके श्रीधर ने बचपन से ही अस्सी फीसदी दिव्यांग होने के बावजूद देश की नई शिक्षा नीति की ड्राफ्ट करने में अहम भूमिका निभाई है।


श्रीधर बताते हैं कि

‘‘उन्होंने बचपन में जिस तर के कष्टों का सामना किया, किसी दूसरे को न झेलना पड़े।’’


उन्होंने आज से लगभग एक दशक पहले एक ऐसी संस्था बनाई, जिसमें दिव्यांग बच्चों के इलाज, पढ़ाई, और देखभाल का इंतजाम किया। अब वहां छात्र छठवीं क्लास से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई कर रहे हैं। देशभर के ऐसे सौ दिव्यांग बच्चे वहां रहकर अपना भविष्य संवार चुके हैं। श्रीधर अब दिव्यांगों को नौकरी मिल सके, इसलिए नए साल में वोकेशनल कोर्स शुरू करेंगे।


प्रोफेसर एम के श्रीधर बताते हैं कि उन्होंने अपनी विकलांगता के बावजूद पढ़ाई के बाद बेंगलुरू से पीजी और मैसूर यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और 1999 में वहीं प्रोफेसर बन गए। चार साल की उम्र में ही उनको अपनी दिव्यांगता पता चल चुका था।


बेंगलुरू में फिजियोथेरेपी, इलेक्ट्रिक शॉक आदि से उनका उपचार भी होता रहा लेकिन उन्होंने किसी भी हालात में अपनी पढ़ाई को बाधित नहीं होने दिया, जबकि चौदह की उम्र होने तक उनके नौ ऑपरेशन हो चुके थे। इलाज के सिलसिले में उनको 1963 में चेन्नई भी जाना पड़ा। उस जमाने में ह्वील चेयर जैसी सुविधाएं भी ईजाद नहीं हुई थीं।


वह जमीन पर बैठकर हाथों के सहारे चलते थे। मामूली पानी पीकर स्कूल जाते थे, टॉयलेट लगती तो रोक लेते थे। घर लौटकर ही बाथरूम जाते थे। मां भी सिखाती थीं कि अपना कम वजन रखने, दूसरो के लिए बोझ न बन जाने के लिए कम खाना खाया करो।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति समिति के सदस्य श्रीधर कहते हैं कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश के एजुकेशन सिस्टम को पूरी तरह बदल देगी। शिक्षा के पहले 15 साल बहुत अहम होते हैं, उसका भी इस नई नीति में खास ध्यान रखा गया है। करिकुलम, सो कॉल्ड करिकुलम और एक्स्ट्रा करिकुलम इन सबमें फर्क खत्म करने का काम भी इस नीति के माध्यम से हम कर रहे हैं।


इस नीति में लिबरल आर्ट ऑफ एजुकेशन व्यवस्था को भी लागू किया गया है, ताकि शिक्षा का स्तर और बेहतर हो सके। डिग्री देने वाले स्वायत्त महाविद्यालयों की व्यवस्था भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में रहेगी। इसका उद्देश्य भारत और इंडिया के अंतर को कम करना है।


इसके लागू होने के बाद किसी भी प्रशासनिक व्यवस्था के पास एक से अधिक दायित्व नहीं रहेगा। सब मात्र एक ही दायित्व का निर्वहन करेगें ताकि एक सफल शैक्षिक प्रकिया का संचालन हो सके। डिग्री ग्रांटिंग ऑटोनोमस महाविद्यालयों की व्यवस्था भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में रहेगी।