गणेश महोत्सव, बाल गंगाधर तिलक और आज़ादी की लड़ाई
तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की दिशा दी.
मराठी संस्कृति में गणेश चतुर्थी (ganesh chaturthi) का पर्व मनाए जाने का विधान रहा है. गणेश चतुर्थी लोक आस्था से जुड़ा हुआ पर्व तो है ही लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में भी इसका एक महत्व रहा है. ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा’, का प्रभावशाली नारा देने वाले प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने 'स्वराज' के अपने इस संघर्ष में अपनी संस्कृति के एक मुख्य त्योहार को लोगों को एकजुट करने का एक जरिया बनाया. वह त्योहार था सार्वजनिक गणेशोत्सव का.
महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई थी. पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया. पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना राजमाता जीजाबाई ने की थी.
गणेश महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते हुए तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया. यह महोत्सव पेशवाओं के घरों तक सीमित न रहकर आम जन मानस का महोत्सव बना जब साल 1894 में तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप में मनाने की सोची.
ठीक एक साल पहले 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे. किसी भी सार्वजनिक आयोजन से दोबारा इस तरह की घटना हो सकती थी. दादाभाई नैरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे कांग्रेस के कुछ उदारवादी नेता सार्वजनिक आयोजनों के पक्ष में नहीं थे ताकि दंगे पैदा करने वाली किसी भी तरह की स्थिति टाली जा सके. वहीं कांग्रेस के गरम दल के नेता तिलक जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत करना चाहते थे. लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनरायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त जैसे नेताओं के सहयोग से तिलक ने 1894 में सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत की.
गणेश, वर्ण व्यवस्था के अनुसार ऊंची और नीची जातियों, दोनों समुदायों के बीच पूजे जाते हैं. तिलक ने यह समझा की दोनों जातियों के लोगों के बीच व्यापक भेद-भाव मिटाकर, अंग्रेजों के खिलाफ, उनको एक साथ लाने का इससे बेहतर मौका न मिले. जिस त्यौहार में देश के सभी लोग एक जुट होकर साथ आयें वही त्योहार सही मायनों में राष्ट्रीय पर्व हो सकता है. तिलक के लिए गणेश चतुर्थी ऐसा ही एक पर्व था. साल 1893 में तिलक ने सबसे पहली मंडल की स्थापना की- गिरगाओं में केशवी नाइक चाल सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल.
गणेश चतुर्थी 10 दिनों तक मनाया जाने वाला त्यौहार है. तिलक ने गणेश की एक बड़ी प्रतिमा सार्वजनिक स्थान में स्थापित किया. इस मौके पर श्रद्धालुओं का उस पंडाल में, गणेश प्रतिमा के पास आना जाना लगा रहा. लोग आते जाते, एक दुसरे से मिलते, देश के बारे में भी बात करते. कवि गोविंद की कथाएं वाची जातीं. राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने का प्रयास होता. अंग्रेजी शासन के विरोध में भाषण दिए जाते. अंग्रेजों के खिलाफ विभिन्न समुदाय, जातियों के लोग एक जगह एक स्वर में खड़े दीखते.
यह और भी जरुरी था क्यूंकि ठीक एक साल पहले 1892 में ’एंटी-पब्लिक असेम्बली लेजिस्लेशन’ (anti-public assembly legislation) का नियम लाकर ब्रिटिश सरकार ने सार्वजनिक जगहों पर हिन्दू लोगों की मीटिंग्स पर पाबंदी लगा रखी थी.
तिलक को गणेश चतुर्थी के रूप में वह मौका दिखा जहां लोग इस नियम को बिना तोड़े इक्कठा हो सकते हैं. गणेश चतुर्थी के 10 दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में पूजा-अर्चना तो हुई ही, साथ ही साथ राष्ट्रवादी कार्यक्रम भी हुए जिसमें देश की आज़ादी को लेकर लोगों के भावनाओं को संबल मिला. एक धार्मिक जगह को सामजिक सरोकार से जोड़ने का काम किया था तिलक ने. इस त्योहार के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रवाह तेज़ करके अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ जनमत का निर्माण किया.
तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की दिशा दी. यही ज़ज्बा और जोश 1905 आते-आते, बंगाल-विभाजन’ के मार्फ़त ‘डिवाइड एंड रूल’ पालिसी के खिलाफ लोगों के गुस्से के रूप में फूटा. जिससे स्वदेशी आन्दोलन का जन्म हुआ.
1905 आते-आते गणेश चतुर्थी के मौके पर सार्वजनिक पंडाल बनाया जाना आम बात हो चुकी थी. लोग अपने अपने शहरों में यह पंडाल बनाते और लोगों में आजादी की अलख भी जगाते. इसी उद्देश्य से तिलक काशी भी आये थे. महाराष्ट्र के पुणे में पहला गणेश उत्सव की शुरुआत करने के बाद तिलक ने काशी में द्वितीय गणेश उत्सव की शुरुआत की. काशी के ब्रह्माघाट, बीवीहटिया, पंचगंगा घाट समेत कई ऐसे इलाके हैं, जहां पर आज भी बड़ी आबादी मराठों की रहती है जो करीब 125 सालों से लगातार गणेश उत्सव का पर्व मना रही है.