Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

गरीबी को पछाड़कर जब कलेक्टर बने डॉ. राजेंद्र भारूड़, ज़माना दंग रह गया

गरीबी को पछाड़कर जब कलेक्टर बने डॉ. राजेंद्र भारूड़, ज़माना दंग रह गया

Wednesday March 11, 2020 , 4 min Read

एक तो हाशिये पर पड़ा भील समुदाय, दूसरे गरीबी की मार। मां की देसी शराब की बिक्री से राजेंद्र को एक ही वक़्त का भोजन नसीब हो पाता था। वह जब 10वीं में 95 प्रतिशत, 12वीं में 90 प्रतिशत, एमबीबीएस, फिर यूपीएससी में सेलेक्ट होने के बाद कलेक्टर बने तो उन पर छपी किताब की 70 हजार प्रतियां हाथोहाथ बिक गईं। 


k

आईएएस डॉ. राजेंद्र भारूड़ (फोटो क्रेडिट: Facebook)



धुले (महाराष्ट्र) के सामोडा निवासी डॉ. राजेंद्र भारूड़ राज्य के आदिवासी भील समाज से आईएएस बनने वाले पहले ऐसे युवा हैं, जिनकी सफलता यह साबित करती है कि गरीबी से लड़कर किस तरह जिंदगी की शानदार जंग जीती जा सकती है।


एक गहरा दंश, उनके जिंदगीनामा में इस तरह भी दर्ज है कि उनकी मां जब बचपन देसी शराब बेचती थीं, पीने वालो से मिले स्नैक्स के पैसे से वह पढ़ाई के लिए किताबें खरीद लाते थे। छोटी सी झोपड़ी में उनके माता-पिता समेत दस लोगों का परिवार बसर करता था। जन्म लेने से पहले ही उनके पिता चल बसे। मां के सामने बच्चे पालने की मुश्किल चुनौतियों ने देसी शराब बेचने के लिए विवश कर दिया।


संघर्षरत मां की लाख मशक्कत के बावजूद एक ही वक्त के भोजन का जुगाड़ हो पाता था। माँ भले पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन वह हमेशा एक ही सपना देखती रहती थीं कि उनके बच्चे पढ़-लिख कर देश-समाज में नाम कमाएं। खासकर वह राजेंद्र को बड़ा होकर डॉक्टर या पुलिस अफसर के रूप में देखना चाहती थीं।  


गौरतलब है कि आईएएस राजेंद्र उसी राज्य के भील समुदाय से आते हैं, जहां के भीलों ने सामंती अत्याचारों से तंग आकर 1857 से पहले कई बार अपनी अस्मिता के लिए विद्रोह किए, जिनमें खानदेश का भील विद्रोह प्रमुख रहा है। अंग्रेजों ने भील विद्रोहों को कुचलने के लिए सतमाला पहाड़ी क्षेत्र के कुछ नेताओं को पकड़ कर फाँसी दे दी थी किंतु जन सामान्य की भीलों के प्रति सहानुभूति बनी रही। इस तरह उनका दमन नहीं किया जा सका।


खैर, डॉ. राजेंद्र भारूड़ अपने अतीत की विपन्नता के वे दुखद पन्ने पलटते हुए बताते हैं कि वह जब अपनी मां कमला के पेट में थे, पिता चल बसे थे, तो परिजनों, पड़ोसियों ने कहा कि वह गर्भपात करा लें, लेकिन वह ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकीं। उनसे पहले एक भाई और एक बहन दुनिया में आ चुके थे। उस समय मां पूरे दिन की मजदूरी से मात्र दस रुपए कमा पाती थीं। परिवार भूखा रहने लगा तो वह देसी शराब बेचने लगीं।





डॉ. भारूड़ बताते हैं कि मां जिस वक्त शराब बेचती थी, भूख लगने पर वह रोने लगते। ग्राहकों का ध्यान रखते हुए मां उन्हे चुप कराने के लिए उनके मुंह में दूध के बजाए दो-एक चम्मच शराब डाल दिया करतीं। उसके बाद उन्हे नींद आ जाती थी। धीरे-धीरे वह इसी तरह मां के साथ वक़्त काटने के आदती हो गए।  


आईएएस डॉ. राजेंद्र बताते हैं कि स्कूल जाने की उम्र आते ही मां उनको झोपड़ी से कुछ दूर स्थित चबूतरे पर पढ़ने के लिए भेज दिया करती। वह आदिवासी गरीबों का स्कूल कुछ ऐसा ही था। उन्हे आज भी उस चबूतरे पर चौथी क्लास की पढ़ाई याद है। मां से देसी शराब खरीदने वाले पियक्कड़ चबूतरे तक पहुंच जाते और उनको स्नैक्स के लिए पैसे देते रहते थे। उसी में से बचाकर वह किताबें खरीद ले आते।


शराबी उनकी मां को ताने दिया करते कि बच्चे को इतना पढ़ाकर क्या करोगी, कलेक्टर बनाओगी क्या! उसे भी तो तुम्हारी तरह आखिरकार हमे शराब ही पिलानी पड़ेगी। वे ताने आज भी उनके कानो में गूंजते रहते हैं। दसवीं क्लास तक उनकी पढ़ाई-लिखाई इसी तरह चलती रही। जब दसवीं क्लास के बोर्ड एक्जाम में उनके 95 प्रतिशत नंबर आए तो पूरा आसपास जान गया। उनसके बाद बारहवीं क्लास में भी उनको नब्बे फीसद अंक मिले।


उसके बाद 2006 में उन्हे मुंबई के सेठ जीएस मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया। वहां भी वह अव्वल छात्रों में शुमार हो गए। वर्ष 2011 में उन्होंने यूपीएससी का फॉर्म भरा और आईएएस सेलेक्ट हो गए। तब तक मां कमला को पता नहीं था कि बेटा तो साहब बन चुका है। जब बढ़ाई देने के लिए उनके घर मुलाकातियों की आवाजाही शुरू हुई, तब मां को पता चला कि उनकी तपस्या सफल हो चुकी है।