Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
Youtstory

Brands

Resources

Stories

General

In-Depth

Announcement

Reports

News

Funding

Startup Sectors

Women in tech

Sportstech

Agritech

E-Commerce

Education

Lifestyle

Entertainment

Art & Culture

Travel & Leisure

Curtain Raiser

Wine and Food

YSTV

ADVERTISEMENT
Advertise with us

जन्मदिन विशेष: सरस निबंधों के समृद्ध शिल्पी हजारी प्रसाद द्विवेदी

जन्मदिन विशेष: सरस निबंधों के समृद्ध शिल्पी हजारी प्रसाद द्विवेदी

Saturday August 19, 2017 , 4 min Read

द्विवेजी जी की कवि हृदयता वैसे तो उनके उपन्यास, निबंध और आलोचना के साथ-साथ इतिहास में भी देखी जा सकती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने बड़ी संख्या में कविताएँ भी लिखी हैं। 

हजारी प्रसाद द्विवेदी (फोटो साभार: सरोकारनामा)

हजारी प्रसाद द्विवेदी (फोटो साभार: सरोकारनामा)


 भारत सरकार ने उनकी विद्वत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1957 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया था।

द्विवेदी जी की मनोरंजक, हल्की-फुल्की और विनोदपूर्ण लगने वाली उड़ानों के बीच एक गंभीर अन्वेषण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह प्रक्रिया असल में आत्मान्वेषण की प्रक्रिया होती है।

शीर्षस्थ साहित्यकारों में एक अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा जैसी कालजयी कृतियों के ललित निबंधकार, उपन्यासकार पद्मभूषण पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का आज जन्मदिन है। प्रमुख रूप से आलोचक, इतिहासकार और निबंधकार के रूप में प्रख्यात द्विवेजी जी की कवि हृदयता वैसे तो उनके उपन्यास, निबंध और आलोचना के साथ-साथ इतिहास में भी देखी जा सकती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने बड़ी संख्या में कविताएँ भी लिखी हैं। भारत सरकार ने उनकी विद्वत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1957 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया था।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सिद्धान्तों की बुनियादी पुस्तक 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' में साहित्य को एक अविच्छिन्न परम्परा तथा उसमें प्रतिफलित क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा गया है। नवीन दिशा-निर्देश की दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है। वह हिन्दी के सर्वाधिक सशक्त निबंधकार माने जाते हैं। उनके निबंधों को ललित निबंधों के लिए मानदण्ड के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। निबंध वह विधा है, जहाँ रचनाकार बिना किसी आड़ के पाठक से बातचीत करता है और इस क्रम में वह पाठक के सामने खुलता चलता जाता है। ललित निबंध में यह प्रवृत्ति अधिक मुखर होती है, क्योंकि वहाँ आरोपित व्यवस्था का बंधन नहीं होता।

व्यक्ति व्यंजक या आत्मपरक निबंधकारों के प्रतिनिधि द्विवेदी जी स्वीकार करते हैं कि 'नये युग में जिस नवीन ढंग के निबंधों का प्रचलन हुआ है, वे तर्कमूलक की अपेक्षा व्यक्तिगत अधिक हैं।' ये व्यक्ति की स्वाधीन चिन्ता की उपज हैं। व्यक्तिगत निबंधों के संदर्भ में उनके विचार हैं कि व्यक्तिगत निबंध 'निबंध' इसलिए हैं कि वे लेखक के समूचे व्यक्तित्व से सम्बद्ध होते हैं। लेखक की सहृदयता और चिन्तनशीलता ही उसके बंधन होते हैं।'

द्विवेदी जी की मनोरंजक, हल्की-फुल्की और विनोदपूर्ण लगने वाली उड़ानों के बीच एक गंभीर अन्वेषण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह प्रक्रिया असल में आत्मान्वेषण की प्रक्रिया होती है। बात हल्के फुल्के ढंग से आरंभ होती है, लेकिन विचार-सागर में डूबने-उतराने के क्रम में वह चिन्तन की गंभीर ऊँचाइयों पर पहुँच जाती है। इस प्रक्रिया में पाठक कब शामिल हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। 'कुटज' अथवा 'देवदारू' में आत्मान्वेषण की यह प्रक्रिया जब चलती है, तो पाठक का 'आत्म' भी उसी उद्दाम जिजीविषा से अनुप्रेरित होने लगता है। तब 'कुटज' और 'देवदारू' में पाठक अपना स्वरूप भी अन्वेषित करने लगता है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पिता पंडित अनमोल द्विवेदी भी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में ही हुई वहीं से इन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात काशी से इन्होंने इण्टर व ज्योतिष विषय से आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात वह शांति निकेतन पहुंच गये और कई वर्षों तक वहां हिन्दी विभाग में कार्य करते रहे और वहीं से इनके विस्तृत अध्ययन और लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ। हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व प्रभावशाली और उनका स्वभाव सरल और उदार था। वह हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत और बंग्ला भाषाओं के विद्वान थे।

द्विवेदीजी ने उत्कृष्ट आलोचना के जरिए अपनी विद्वता की धाक जमाने के साथ-साथ अपने सरस, ललित निबंधों से पाठकों का मन जीत लिया। उनके आलोचनात्मक उल्लेखों के साथ प्रफुल्ल कोलख्यान लिखते हैं कि हिंदी साहित्य का इतिहास और आलोचना प्रारंभ से ही धर्म और भक्ति के अंतर को नजरअंदाज करती आई है एवं दोनों को एक दूसरे का पर्याय मानकर विवेचन करती आई है। इस आधार पर होनेवाले विवेचन में स्वाभाविक रूप से असंगतियों के लिए अवकाश रह जाता है। 'भक्ति' और 'धर्म' में अंतर है, लेकिन, दिक्कत यह है कि हिंदी आलोचना के मनोभाव में शुरू से ही 'भक्ति' और 'धर्म' पर्याय की तरह अंत:सक्रिय रहे हैं। इस अंत:सक्रियता के ऐतिहासिक आधार भी रहे हैं। हिंदी आलोचना को भक्ति काल के साहित्य के अध्ययन के क्रम में इस कठिन सवाल से जूझना अभी बाकी है कि क्या धर्म और भक्ति एक ही चीज है? 

यह भी पढ़ें: गीत लिखना मेरा पेशा है: गुलज़ार