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परवीन शाकिर ने तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

वो शायरा जिनके शेरों में लोकगीत की सादगी और आधुनिकता का दिल आवेज़ संगम है...

परवीन शाकिर ने तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

Tuesday December 26, 2017 , 7 min Read

वह पाकिस्तान की उन कवयित्रियों में एक रही हैं जिनके शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम है।

परवीन शाकिर

परवीन शाकिर


परवीन ने चिड़ियों के प्रतीकों के बहाने कई लाजवाब लाइनों की रचनाएं कि जो लोकप्रिय हुईं- 'दाने तक जब पहुँची चिड़िया जाल में थी, ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया।' तितलियों और पक्षियों को प्रतीक बनाकर उनकी और भी कई रचनाएं मशहूर हुईं।

उनकी कविताओं को ग़ौर से पढ़ने से यह आभास होता है कि इनमें से अधिकतर आत्मकथात्मक हैं। परवीन शाकिर की शायरी आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। ज़िंदगी के विभिन्न मोड़ों को उन्होंने एक क्रम देने की कोशिश की है।

उर्दू शायरी में एक युग का प्रतिनिधित्व करती विश्वविख्यात शायरा सैयदा परवीन शाकिर की 26 दिसंबर को पुण्यतिथि होती है। वह पाकिस्तान में सिविल सेवा में अधिकारी थीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग, इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी, इंकार, माह-ए-तमाम आदि। उनकी शायरी का केन्द्रबिंदु स्त्री रही है। वह पाकिस्तान की उन कवयित्रियों में एक रही हैं जिनके शेरों में लोकगीत की सादगी और लय भी है और क्लासिकी संगीत की नफ़ासत भी। उनकी नज़्में और ग़ज़लें भोलेपन और सॉफ़िस्टीकेशन का दिलआवेज़ संगम है।

ऐसी किसी शायरा के बारे में शायद ही कभी सुना गया हो कि उसकी परीक्षा में उसी पर सवाल पूछा गया हो। उनके बारे में कहा जाता है कि जब उन्होंने 1982 में सेंट्रल सुपीरयर सर्विस की लिखित परीक्षा दी तो उस परीक्षा में उन्हीं पर एक सवाल पूछा गया था, जिसे देखकर वह आत्मविभोर हो गयी थीं। उन्होंने चिड़ियों के प्रतीकों के बहाने कई लाजवाब लाइनों की रचनाएं कि जो लोकप्रिय हुईं- 'दाने तक जब पहुँची चिड़िया जाल में थी, ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश ने मार दिया।' तितलियों और पक्षियों को प्रतीक बनाकर उनकी और भी कई रचनाएं मशहूर हुईं-

सजे-सजाये घर की तन्हा चिड़िया!

तेरी तारा-सी आँखों की वीरानी में

पच्छुम जा छिपने वाले शहज़ादों की माँ का दुख है

तुझको देख के अपनी माँ को देख रही हूँ

सोच रही हूँ

सारी माँएँ एक मुक़द्दर क्यों लाती हैं?

गोदें फूलों वाली

आँखें फिर भी ख़ाली।

परवीन शाकिर नौ साल तक अध्यापन करने के बाद सिविल सेवा में चुनी गई थीं और उन्हें कस्टम विभाग में तैनात किया गया था। 1977 में उनका पहला काव्य संग्रह ख़ुशबू प्रकाशित हुआ था जिसके प्राक्कथन में उन्होंने लिखा था, ‘जब हौले से चलती हुई हवा ने फूल को चूमा था तो ख़ुशबू पैदा हुई.’ उनकी कविताओं को ग़ौर से पढ़ने से यह आभास होता है कि इनमें से अधिकतर आत्मकथात्मक हैं। परवीन शाकिर की शायरी आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। ज़िंदगी के विभिन्न मोड़ों को उन्होंने एक क्रम देने की कोशिश की है-

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा

इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश

फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं

जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली

तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर

वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

रेहान फ़ज़ल के शब्दों में 'उनकी कविताओं में एक लड़की के ‘पत्नी,’ माँ और अंतत: एक स्त्री तक के सफ़र को साफ़ देखा जा सकता है। वह एक पत्नी के साथ माँ भी हैं, कवियित्री भी और रोज़ी कमाने वाली भी। उन्होंने वैवाहिक प्रेम के जितने आयामों को छुआ है, उतना कोई पुरुष कवि चाह कर भी नहीं कर पाया है। उन्होंने यौन नज़दीकियों, गर्भावस्था, प्रसव, बेवफ़ाई, वियोग और तलाक जैसे विषयों को छुआ है जिस पर उनके समकालीन पुरुष कवियों की नज़र कम ही गई है।

माँ होने के अनुभव पर तो कई महिला कवियों ने कलम चलाई है लेकिन पिता होने के अपने अनुभव पर किसी पुरुष कवि की नज़र नहीं पड़ी है। एक और नज़्म नविश्ता को उन्होंने अपने युवा बेटे को संबोधित करते हुए लिखा है कि उसे इस बात पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि उसे एक कवि के बेटे के रूप में जाना जाता है न कि एक पिता के बेटे के रूप में। इक्कीसवीं सदी के बच्चों की जागरूकता पर टिप्पणी करते हुए वह लिखती हैं- उनकी भाषा सरल हो या साहित्यिक लेकिन उससे यह आभास ज़रूर मिलता है कि उसमें संयम और सावधानी को काफ़ी तरजीह दी गई है-

शायद उसने मुझको तन्हा देख लिया है

दुःख ने मेरे घर का रस्ता देख लिया है

अपने आप से आँख चुराए फिरती हूँ मैं

आईने में किसका चेहरा देख लिया है

उसने मुझे दरअस्ल कभी चाहा ही नहीं था

खुद को देकर ये भी धोखा दे ख लिया है

उससे मिलते वक़्त का रोना कुछ फ़ितरी था

उससे बिछड़ जाने का नतीजा देख लिया है

रुखसत करने के आदाब निभाने ही थे

बंद आँखों से उसको जाता देख लिया है

परवीन शाकिर में फ़ैज़ और फ़राज़ की झलक ज़रूर मिलती है लेकिन वह उनकी नकल नहीं करतीं। उन्होंने पहले अंग्रेज़ी में एमए किया और फिर बैंक प्रशासन में। इसके बाद उन्होंने हॉवर्ड विश्वविद्यालय से सार्वजनिक प्रशासन में एमए की डिग्री ली। उन्होंने नसीर अली से शादी की लेकिन यह शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाई। परवीन शुरू में बीना के नाम से लिखा करती थीं। अहमद नदीम क़ासमी उनके उस्ताद थे जिन्हें वह अम्मूजान पुकारा करती थी। परवीन शाकिर इस दुनिया में सिर्फ़ 42 साल तक ही रह सकीं। 26 दिसंबर 1984 जो जब वह अपनी कार से दफ़्तर जा रही थीं, तो एक बस ने उन्हें टक्कर मार दी। इस्लामाबाद में जिस सड़क पर उनका निधन हुआ था, उसको उन्हीं का नाम दिया गया है। परवीन शाकिर को ऐसी शायरा में शुमार किया जाता है जिन्होंने अपनी कविता में वो सब बेबाकी से बयां किया जो उन्होंने अपनी जिंदगी में महसूस किया और सहा-

पिरो दिये मेरे आंसू हवा ने शाखों में

भरम बहार का बाक़ी रहा निगाहों में

सबा तो क्या कि मुझे धूप तक जगा न सकी

कहां की नींद उतर आयी है इन आंखों में

कुछ इतनी तेज़ है सुर्ख़ी कि दिल धड़कता है

कुछ और रंग पसे-रंग है गुलाबों में

सुपुर्दगी का नशा टूटने नहीं पाता

अना समाई हुई है वफ़ा की बांहों में

बदन पर गिरती चली जा रही है ख़्वाब-सी बर्फ़

खुनक सपेदी घुली जा रही है सांसों में।

परवीन शाकिर का प्रेम अपने अद्वितीय अंदाज में नर्म सुखन बनकर फूटा है और अपनी खुशबू से उसने उर्दू शायरी कि दुनिया को सराबोर कर दिया। प्रेम में टूटी हुई, बिखरी हुई खुद्दार स्त्री थीं। उनकी शायरी में प्रेम का सूफियाना रूप नहीं मिलता, वहां अलौकिक कुछ नहीं है, जो भी इसी दुनिया का है। जिस तरह इब्ने इंशा को चाँद बहुत प्यारा है, उसी तरह परवीन शाकिर को भीगा हुआ जंगल-

अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए

बरसात में भी याद जब न उनको हम आए

मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर

भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए

दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा

ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए

बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है

और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए

शाखें हैं तो वो रक़्स में, पत्ते हैं तो रम में

पानी का नशा है कि दरख्तों को चढ़ जाए

हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू

बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छंकाए

अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे

रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए

परवीन शाकिर अपनी गजलों में, शायरी में फिलॉस्पी से बचते हुए सहज-सहज जीवन के ताकतवर, गहरे अनुभव अपने पाठकों से साझा कर जाती हैं-

टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या

बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या

तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो

कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या

औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ

मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या

अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़

सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या

ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू

तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या

तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए

तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या।

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