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लद्दाख के इस गांव में शुद्ध आर्यन की खोज में प्रेग्नेंसी के लिए आती हैं विदेशी स्त्रियां

लद्दाख के इस गांव में शुद्ध आर्यन की खोज में प्रेग्नेंसी के लिए आती हैं विदेशी स्त्रियां

Monday February 04, 2019 , 5 min Read

सांकेतिक तस्वीर

मनुस्मृति में भी लद्दाख की आर्यन स्त्रियों की शारीरिक संरचना का वर्णन किया गया है। वसंत ऋतु के समय यहां की दार्द जनजाति की स्त्रियों का खुलापन, साहचर्य आधुनिक विश्व को भी पीछे छोड़ देता है। जर्मन वैज्ञानिक दशकों से वहां शोधरत हैं। 


एक दावे के मुताबिक आज लद्दाख में शुद्ध आर्य के जो कुछ समुदाय बचे रह गए हैं, उनमें से एक है ब्रोकपा समुदाय। इन्ही के बीच की हैं दार्द जनजाति की स्त्रियां, जिनकी दास्तान आज आधुनिक भारत ही नहीं, पूरे आधुनिक विश्व के भी रस्मोरिवाज़ के चाल-चलन को पीछे छोड़ देती है। वैसे तो उनके रीति-रिवाज हिंदुओं की धार्मिक की परंपराओं से मिलते-जुलते हैं लेकिन वसंत ऋतु आते ही उनमें एक अज़ीबोगरीब मादकता पसर जाती है। फूलों की पोशाक और गहनों से लदी-फदीं दार्द जनजाति की स्त्रियां कई दिनों तक नाचती-गाती रहती हैं। 


इतना ही नहीं, इस दौरान वे पुरुष संबंधों की अदला-बदला को लेकर भी मदहोशी की हद तक आधुनिक हो जाती हैं। यहां के ऐसे रस्मरिवाज़ से जुड़ा एक और हैरत पैदा करने वाला सवाल है कि जम्मू-कश्मीर के इस लद्दाख इलाके में जर्मनी के वैज्ञानिकों की दशकों से क्यों गहरी दिलचस्पी बनी हुई है? अब तो जर्मनवासी खुद को आर्यन का वंशज मानने लगे हैं।

 

लद्दाख में स्त्री-पुरुषों की संख्या में कोई बड़ा अंतर नहीं है। वहां स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। इसका मुख्य कारण निर्धनता है। वहाँ पैदावार इतनी कम होती है कि एक पुरुष के लिए परिवार चलाना संभव नहीं होता। अत: कई पुरुष मिलकर पत्नी रखते हैं। इससे बच्चे कम होते हैं, जनसंख्या मर्यादित रहती है और परिवार की भूसंपत्ति विभिन्न भाइयों के बँटवारे से विभक्त नहीं होती है। सांस्कृतिक उत्सवों के समय इसीलिए स्त्री-पुरुष संबंधों की अदला-बदला यहां कोई खास मायने नहीं रखती है।


लद्दाख के उस इलाके में खूबसूरत आर्यन स्त्रियों की एक गुमनाम दुनिया है, लेकिन उनसे मिलने की इजाजत देश के किसी आम आदमी को नहीं, खुद उस गुमनाम बस्ती की गुजारिश पर सेना उन्हें बाहरी दुनिया से महफूज रखती है। इसलिए, उस रहस्यमय दुनिया में दाखिल होने के लिए सरकारी इजाजत लेनी पड़ती है। मनुस्मृतियों में भी यहां की आर्यन स्त्रियों की शारीरिक संरचना का वर्णन किया गया है। 


लेह की उन वादियों में स्त्रियों की वेश-भूषा, उनकी नीली आंखें, उनकी कद-काठी ही उनकी पहचान है क्योंकि लेह के इस इलाके में सामान्य लोगों की लंबाई पांच फीट के आसपास होती है, लेकिन वहां हर शख्स छह फीट से भी लंबा। उन वादियों में ऐतिहासिक सिंधु नदी भी दिखती है। वहां पहाड़ों के ऊपर आर्यों के दो गांव हैं, जिनमें आज भी हजारों आर्यन रह रहे हैं। चारों तरफ से खूबसूरत पहाड़ो से घिरे दाह गांव में हर तरफ फूलों से लदे खुरमानी के पेड़ नजर आते हैं। यहां के लोगों की वेश-भूषा इतिहास के पुराने किरदारों की तरह होती है। प्रायः ज्यादातर वक्त यहां लोक नृत्य की गूंज बनी रहती है। वसंत के मौसम में ये गूंज यहां की स्त्रियों का सुख-सौंदर्य द्विगुणित कर देती है। इसीलिए लद्दाख को सही ही 'चन्द्रभूमि' कहा जाता है।


एक ताजा रिसर्च में बताया गया है कि लद्दाख के क्षेत्र में बसा यह आदिवासी समूह ही आर्यनों की वास्तविक प्रजाति है। जर्मन वैज्ञानिक अरसे से उन पर शोध कर रहे हैं। वे शोध के लिए यहां के बाशिंदों के जेनेटिक मैटिरियल तक जर्मन ले जा चुके हैं। गृह मंत्रालय के जसंख्या विभाग की एक बैठक में सीएस सप्रू यह मुद्दा उठाते हुए बता चुके हैं कि लद्दाख से करीब 30 किमी दूर कलसी गांव है। यहां पर रहने वाले आदिवासी आम कश्मीरियों से भिन्न हैं। वे ऊंचे कद, गोरे रंग, सुनहरे बाल और नीली आंखों वाले हैं। वे खुद को ‘ट्रु आर्यन’ यानी आर्यो के वास्तविक वंशज मानते हैं।


ये लोग अपने समाज के अंदर ही सीमित रहते हैं तथा बाहरी दुनिया से परहेज करते हैं। वहां जर्मन महिलाओं को रिसर्च के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। वे वहां की औरतों में घुल-मिल चुकी हैं। जानकार बताते हैं कि शोध के लिए कई जर्मन महिलाएं इन आदिवासियों से गर्भधारण कर वापस जा चुकी हैं। जबकि बिना अनुमति के जेनेटिक मेटीरियल शोध के लिए देश से बाहर नहीं ले जाया जा सकता है। यदि कोई ऐसा करते हुए पकड़ा जाए तो उस पर तस्करी के कानून के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है।


ऐतिहासिक शोधों में खुलासा किया गया है कि दिल्ली से करीब बारह सौ किलोमीटर दूर, उसके बाद लेह शहर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित उस पूरे इलाके को ही कुदरत ने बेपनाह खूबसूरती बख्शी है और वहां दो हजार से अधिक शुद्ध आर्यन आज भी जिंदा हैं। बच्चों की ख्वाहिश में न जाने कितनी विदेशी महिलाएं हर साल उन जनजातीय बस्तियों में जाती हैं। म्यूनिख (जर्मनी) की एक महिला बहुत पहले मीडिया से यह बात साझा कर चुकी है कि वह यहां एक बच्चे की ख्वाहिश में पहुंची क्योंकि उसे लगा था कि सिर्फ वही एक ऐसी जगह है, जहां असली आर्यन मिलते हैं।


वहीं के लोगों में आर्यन का असली खून है। उसने ये भी रहस्योद्घाटन किया था कि इसके पीछे एक पूरा सिस्टम है। उस काम के लिए उसने पैसे खर्च किए हैं क्योंकि आर्यन सबसे बाहुबली, सबसे बुद्धिमान, सबसे खूबसूरत और सबसे शुद्ध होते हैं। इसी ख्वाहिश में हर साल सैकड़ों विदेशी महिलाएं वहां की एक रहस्यमय बस्ती में आती हैं ताकि उनके होने वाले बच्चे की रगों में भी एक आर्यन का रक्त हो।


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